Saturday, July 30, 2016

मूसा मरेया मौत से आगे मौत खड़ी


एक फकीर से किसी ने जाकर पूछा कि हमें मृत्यु और जीवन के संबंध में कुछ समझाये?उस फकीर ने कहा कहीं और जाओ। अगर केवल जीवन के सम्बन्ध में ही समझना हो तो मैं समझाऊँ लेकिन मौत के
सम्बन्ध में समझना हो तो कहीं और जाओ। क्योंकि मौत को तो हम जानते ही नहीं कि कहीं है। हम तो केवल जीवन को जानते हैं।
    जो जानता है वह केवल जीवन को जानता है इसके लिए मौत जैसी कोई चीज़ रह ही नहीं जाती।और जो सोता है वह केवल मौत को ही जानता है वह जीवन को कभी नहीं जान पाता।सोया हुआआदमी इन अर्थों में मरा हुआआदमी है।उसे जीवन का केवलआभास है,कोईअनुभव नहीं।वह सोया हुआ है इसलिए वह एक जड़ यंत्र है,सचेत आत्मा नहीं। और इस सोये हुए होने पर वह जो भी करेगा,वह मृत्यु के अलावा उसे कहीं नहीं ले जा सकता है, चाहे वह धन एकत्र करे,चाहे वह धर्म एकत्र करे, चाहे वह दुकान चलाये और चाहे वह मन्दिर जाए चाहे वह यश कमाये और चाहे वह त्याग करे। उसका कुछ भी करना उसे मृत्यु के बाहर नहीं ले जा सकता है।
    एक राजा ने रात सपना देखा। वह घबरा गया और उसकी नींद टूट गई। फिर तो उतनी रात उसने सारे महल को जगा दिया और सारी राजधानी में खबर पहुँचा दी कि मैने एक सपना देखा है। जो लोग मेरे सपने का अर्थ कर सकें, उसकी व्याख्या कर सकें, वे शीघ्र चले आयें। गांव के जो भी पंडित थे,विचारशील लोग थे,ज्ञानी थे,भागे हुए राजमहल आये। और उन्होंने राजा से पूछा कि कौन सा सपना आपने देखा है कि आधी रात को आपको हमारी ज़रूरत पड़ गई। उस राजा ने कहा, मैने सपने में देखा है कि मौत मेरे कंधे पर हाथ रखकर खड़ी हैऔर मुझसे कह रही है कि साँझ ठीक जगह परऔर ठीक समय पर मुझे मिल जाना।मुझे तो कुछ समझ में नहींआता कि इस सपने का क्या अर्थ है?
तुम्हीं मुझे समझाओ। ये लोग विचार में पड़ गये और सपने का अर्थ करने लगे। क्या होगा, इसकी सूचना क्या है? इसके लक्षण क्या हैं? और तभी महल के एक बूढ़े नौकर ने राजा को कहा,इनके अर्थ और इनकी व्याख्यायें और इनके शास्त्र बहुत बड़े हैं। और साँझ जल्दी हो जायेगी। मौत ने कहा है साँझ होते होते सूरज ढलते ढलते मुझे ठीक जगह पर मिल जाना। मैं तुम्हें लेने आ रही हूँ। उचित तो यह होगा कि आपके पास जो तेज से तेज़ घोड़ा हो, उसको लेकर इस महल से साँझ तक जितनी दूर हो सके निकल जायें।इस महल में अब एक क्षण भी रुकना खतरनाक है। जितनी दूर जा सकें, चले जायें। मौत से बचने का इसके सिवाय कोई रास्ता नहीं है। और अगर इन पंिडतों की व्याख्या के लिए रुके रहे तो ये क्या अर्थ करेंगे तो मैं आपसे कह देता हूँ कि ये पंडित जो आज तक किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचे हैं, कोई निष्पत्ति और कोई समाधान पर नहीं पहुँचे हैं हालाँकि हज़ारों साल से विचार कर रहें हैं। जब ये अभी तक जीवन का ही कोई अर्थ नहीं निकल पाये तो मौत का क्या अर्थ निकाल पायेंगे?साँझ बहुत जल्दी हो जायेगी इनका अर्थ न निकल पायेगा।आप भागें यही ठीक है। इस महल को जल्द से जल्द छोड़े दें यही उचित है। राजा को बात समझ में आई। उसने अपना तेज़ से तेज़ घोड़ा बुलवायाऔर उस पर बैठ कर भागा। दिन भर वह भागता रहा।न उसने धूप देखी न छाँव न उस दिन उसे प्यास लगी,न भूख। जितनी दूर निकल सके उतने दूर निकल जाना था। मौत पीछे पड़ी थी। महल से जितना दूर हो जाये उतना ही अच्छा था। जितना मौत के पंजे से बाहर हो जाये उतना ही अच्छा था। साँझ होते होते, वह सैंकड़ों मील दूर निकल गया। सूरज ढल रहा था। उसने एक बगीचे में जाकर घोड़ा ठहराया।वह प्रसन्न था कि वह काफी दूर आ गया है। जब घोड़ा बाँध ही रहा था तभी उसे अनुभव हुआ कि पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रख दिया है।उसने लौटकर देखा। वह घबरा गया।उसके सारे प्राण कंप गये। जो काली छाया रात सपने में उसे दिखाई पड़ी थी वही खड़ी थी। घबरा कर राजा ने पूछा तुम। तुम कौन हो?उसने कहा,मैं हूँ तुम्हारी मृत्यु क्या भूल गयेआज की रात ही मैने तुम्हें स्मरण दिलाया था कि साँझ होने के पहले,सूरज ढलने के पहले, ठीक समय,ठीक जगह पर मुझे मिल जाना। मैं तो बहुत घबराई हुई थी क्योंकि जहां तुम थे,वहां से इस वृक्ष के नीचे तक, ठीक समय पर आने में बहुत कठिनाई थी। लेकिन तुम्हारा घोड़ा बुहत तेज़ थाऔर उसने तुम्हें ठीक समय,ठीक जगह पर पहुँचा दिया। मैं तुम्हारेघोड़े को धन्यवाद देती हूँ।इस जगह तुम्हें मरना थाऔर मैं चिन्तित थी कि सूरज ढलने तक तुम इस जगह तक आ भी पाओगे या नहीं।
    दिन भर की दौड़ साँझ को मौत में ले गई। सोचा था बचने के लिए भाग रहा है। और उसे पता भी न था कि बचने के लिए नहीं भाग रहा था बल्कि जिससे बचना चाह रहा था प्रतिक्षण उसके ही निकट होता जाता था।उसे पता भी न था कि उसका उठाया हुआ प्रत्येक कदम उसे मौत के मुँह में ले जा रहा था। हम सब भी अपने अपने घोड़े पर सवार हैं। और हम सब भी मौत के मुँह में चले जा रहे हैं। हम जो भी करेंगे, वह शायद हमें उस ठीक जगह पहुँचा देगा जहाँ मौत हमारी प्रतीक्षा कर रही है।और हम जिस रास्ते पर भी चलेंगे, वह हमें मौत के अतिरिक्त कहीं नहीं ले जायेगा आज तक यही होता रहा है।

Tuesday, July 26, 2016

जितनी ज़मीन घेर लो आपकी


     एक राजा का जन्मदिन था। कहते हैं उसने सारी ज़मीन जीत ली थी। अब उसके पास जीतने को कुछ भी नहीं बचा था। उसने अपनी राजधानी के सौ ब्रााहृणों को भोजन पर आमंत्रित किया। वे उसके राज्य के सबसे विचारशील पण्डित थे। जन्म दिन के उत्सव में उन्होने भोजन किया और पीछे उस राजा ने कहा, मैं तुम्हें जन्म दिन की खुशी में कुछ भेंट करना चाहता हूँ। लेकिन मैं कुछ भी भेंट करूँ तुम्हारी आकांक्षा से भेंट छोटी पड़ जायेगी। तुम न मालूम क्या सोचकर आये होंगे कि राजा क्या भेंट करेगा। तो मैं जो भी भेंट करूँगा, हो सकता है, वह छोटी पड़ जाये इसलिए मैं तुम्हारे मन पर ही छोड़ देता हूँ तुम्हारी भेंट। मेरे भवन के पीछे दूर दूर तक श्रेष्ठतम ज़मीन है राज्य की। तुम्हें जितनी ज़मीन उसमें से चाहिए उतनी पहले तुम दीवाल बनाकर घेर लो, वह तुम्हारी हो जायेगी। जो जितनी ज़मीन घेर लेगा, वह उसकी हो जायेगी।ऐसा मौका कभी न मिला था और वह भी ब्रााहृणों को। वे ब्रााहृण तो खुशी से पागल हो उठे।उन्होने अपने मकान बेच दिये,अपनी धन-संपत्ति बेच दी, सब बेचकर वे वड़ी दीवाल बनाने में लग गये। जो जितना उधार ले सकता था, मित्रों से माँग सकता था, सब ले आये थे।यह मौका अदभुत था।ज़मीन मुफ्त मिलती थी। राज्य की सबसे अच्छी ज़मीन थी।सिर्फ रेखा खींचनी थी,दीवाल बनानी थी।बड़ी बड़ी दीवालें उन्होने बनाकर जो जितनी ज़मीन घेर सकता था,घेर ली। तीन महीनों के बाद जबकि वह ज़मीन करीब करीब घिरने के निकट पहुँच गयी थी, राजा ने घोषणा की कि मैं एक खबर और कर देता हूँ जो सबसे ज्यादा ज़मीन घेरेगा उसे मैं राजगुरु के पद पर भी नियक्त कर दूँगा। अब तो पागलपन और तेज़ हो गया।अब जिसके पास जो भी था,कपड़े लत्ते भी बेच दिये।उच्च ब्रााहृणों ने अपनी लंगोटियाँ लगा लीं क्योंकि कपड़े लत्ते बेच कर भी चार र्इंट आती थीं तो थोड़ी ज़मीन और घिरती थी। वे करीब करीब नंगे और फकीर हो गये। वे ज़मीन घेरने में पागल हो गये। आखिर समय पूरा हो गया। ज़मीन उन्होने घेर ली। दिन आ गया, और राजा वहां गया और उसने कहा कि मैं जांच कर लूँ और राजगूरु का पद दे दूँ। तो तुममें से जिसने ज्यादा ज़मीन घेरी हो, वह बताये। जो दावा करेगा। उसकी जाँच कर ली जायेगी। एक ब्रााहृण खड़ा हुआ। उसको देखकर बाकी ब्रााहृण हैरान रह गये। वह तो सबसे ज्यादा गरीब ब्रााहृण था। उसने एक थोड़ा-सा ज़मीन का टुकड़ा घेरा था,शायद सबसे कम उसी की ज़मीन थी और वह पागल सबसे पहले खड़ा हो गया। और उसने कहा, मेरी ज़मीन का निरीक्षण कर लिया जाये,मैने सबसे ज्यादा ज़मीन घेरी है। मैं राजगुरु के पद पर अपने को घोषित करता हूँ।राजा ने कहा, ठहरो। लेकिन उसने कहा ठहरने की कोई ज़रूरत नहीं,मैं घोषित करता हूँ। बाद में तुम भी घोषणा कर देना चलो ज़मीन देख लो।
      जब उसने दावा किया था तो निरीक्षण होना ज़रूरी था सारे ब्रााहृण और राजा उसकी ज़मीन पर गयेऔर देखकर ब्रााहृण हँसने लगे। पहले तो उसने थोड़ी सी दीवाल बनायी थी। मालूम होता था, रात में उसने दीवाल तोड़ दी थी, रात दीवाल भी न रही। राजा ने कहा,कहाँ है तुम्हारी दीवाल?बस ब्रााहृण ने कहा, मैने दीवाल बनायी थी फिर मैने सोचा, दीवाल कितनी ही बनाऊँ जो भी घिरेगा वह छोटा ही होगा। फिर मैने सोचा दीवाल गिरा दूँ क्योंकि दीवाल कितनी ही बड़ी ज़मीन को घेरे तो भी ज़मीन आखिर छोटी ही होगी। घिरी होगी तो छोटी ही होगी।तो मैंने दीवाल गिरा दी है। मैं सबसे बड़ी ज़मीन का मालिक हूँ।मेरी ज़मीन की कोई दीवाल नहीं हैइसलिए मैं कहता हूँ राजगुरु की जगह खड़ा हूँ।
    राजा उसके पैर पर गिर पड़ा। उसने कहा, मुझे पहली दफा ख्याल में आया है कि जो दीवाल गिरा देता है वह सबका हो जाता है, सबका मालिक हो जाता है और जो दीवाल बनाता है वह कितनी ही बड़ी दीवाल बनाये तो भी ज़मीन छोटी ही घेर पाता है। मनुष्य के चित्त पर बहुत दीवालें हैं, इसके कारण मनुष्य को बड़ा करना है तो उसकी सारी दीवालें गिरा देना ज़रूरी हैं और जो लोग भी इन दीवालों को गिराने में लगे हैं वे ही लोग मनुष्यता की सेवा कर रहे हैं। जिसके मन पर कोई दीवाल न हो तो वही सबका मालिक हो जाता है।

Saturday, July 23, 2016

सुग्रीव जी का मोह

कहते है कि जब सुग्रीव और भगवान श्री राम जी की मित्रता हो गई तो सुग्रीव ने प्रभु जी को माता सीता की खोज कर उन्हें वापिस ले के आने का वायदा किया। कुछ समय बीत गया श्री राम जी ने लक्ष्मण से कहा वर्षा ऋतु गई और शरद ऋतु आ गई परन्तु अभी तक जानकी जी की कोई सुध न मिली। जैसे कैसे एक बार कही से पता चल जाए कि जानकी फलां जगह पर है तो मुझे काल से क्यों न लड़ना पड़े, एक पल में उसे जीत कर सीता जी को वापस ले आऊं।
हे तात। जो जानकी कहीं भी हुई परन्तु जीती होगी तो चतन करके अवश्य ले आऊंगा। मालूम होता है सुग्रीव ने भी राज्य तख्त, शहर, स्त्री और खजाना पाकर हमारी सुधि विसार दी है अर्थात सुग्रीव भी माया में फंस कर हमको भूल गया है। जिस बाण से मैंने बाली को मारा है। इस मुर्ख का भी उसी बाण से नाश करूंगा।

जासु कृपा छूटे मद मोहा।
ताकहु उमा कि सपनेहु कोहा।।

शिवजी कहते है, हे पार्वती। जिनकी कृपा मात्र से ही संसार के मद, मान, मोह, छूट जाते है। उसमे सुपने के अन्दर भी क्रोध उत्पन्न नहीं हो सकता। यह केवल भय दिखाया है ताकि दास सावधान रहे। क्योंकि भय के बिना भक्ति नहीं हो सकती। भय तथा क्रोध के अन्तर्गत भी दास पर उनका प्यार भरा होता है। लक्ष्मण ने भगवान को क्रोधवंत जान धनुष बाण हाथ में लिया। भगवान ने देखा कि लक्ष्मण तो तैयार हो गया है, कहीं बेचारे सुग्रीव को मार ही ना डाले। तब करुणा सागर भगवान ने लक्ष्मण को समझाया कि हे भाई। सुग्रीव को केवल भय दिखाकर मेरे पास ले आओ, मारना नहीं क्योंकि वह मेरा मित्र है। उधर तो भगवान की मौज उठी कि लक्ष्मण जी के द्वारा वह सुग्रीव को अपने पास बुलाकर उससे अपना कारज करवाने की सोच रहे है तो इधर हनुमान जी के दिल में ख्याल हुआ कि भगवान का कार्य सुग्रीव ने विसार दिया है, उसे चेतन्य करना चाहिये।

सेवक स्वामी एक मत, जो मत में मत मिल जाय।
चतुराई रीझे नहीं, रीझे मन के भाये।।

हनुमान जी ने सुग्रीव के पास जाकर सिर निवाया और राज्य नीति के चारो नियमो साम, दाम, भेद और दण्ड को कह कर समझाया। हे राजन। साम (समान दृष्टि) से भगवान आप के साथ मित्रता बना चुके है। दाम (धन दौलत) के साथ राज्य आदि दे चुके है। अब रहे भेद और दण्ड के लिए भगवान का बाण है, जिससे बाली को मारा था। इसलिए शीघ्र ही जानकी जी की खोज का कार्य आरम्भ करना चाहिये। तब सुग्रीव ने सुनकर बड़ा भय माना। कहने लगा सच है, विषयो ने मेरी बुद्धि मार दी और ज्ञान हर लिया। अब हे हनुमान। शीघ्र ही जहाँ तहां दूत भेजे जावे और जानकी जी की कोई खोज निकाली जाये। उसके पश्चात लक्ष्मण जी भगवान की आज्ञा से शहर में आते है और सुग्रीव पर क्रोध करते है। परन्तु इधर तो भगवान की प्रेरणा से हनुमान जी ने पहले ही मार्ग साफ़ कर रखा था। सुग्रीव जी, लक्ष्मण जी से श्रमा मांगते है और सब मिलकर भगवान के पास जाते है, तब सुग्रीव जी भगवान के चरणकमलो में सिर निवाय हाथ जोड़कर प्रार्थना करते है। हे नाथ। मेरा कोई दोष नहीं है आपकी माया अति प्रबल है, जिसने मुझे भूला दिया है। हे देव। यह तब ही छूटती है जब आप दया करते है जैसे अब मै माया में फंस गया था और आपने दया करके मुझे छुड़ा लिया। हे स्वामी। सुर, नर, मुनि लोग भी विषयों के वश में है तो फिर मै अति नीच कामी पशु बन्दर की क्या गिनती है। हे नाथ। मेरा तो अनुभव यह है कि जिस मनुष्य को स्त्री के नेत्रों का बाण नहीं लगा, और जो मनुष्य क्रोध रुपी अँधेरी रात में जागा हुआ है अर्थात क्रोध और मोह अज्ञान से साफ़ है। हे प्रभु। जिसने लोभ रुपी फांसी में अपना गला नहीं बंधाया है वह मनुष्य तो आपके समान है अर्थात तुम में और उसमे कोई भेद नहीं है। परन्तु यह गुण जीव को अपनी साधना और कमाई से प्राप्त नहीं हो सकती, ये तो केवल आप की दया से ही कोई कोई पा सकते है।
        तब भगवान सुग्रीव की इस प्रकार ज्ञान, वैराग युक्त वाणी सुनकर हँसे। हे सुग्रीव। चिन्ता मत करो, तुम मुझे अपने भाई भरत के समान प्यारे हो। हे सखा अब मन लगाकर यही यतन करो जिससे जानकी की सुधि मिले। अब सीता जी की खोज शुरू हो जाती है, सुग्रीव जी आज्ञा पाते हुए, अनेक शूरवीर योद्धा अपनी-अपनी सेनाओ के सहित सब दिशाओ को चल पड़ते है। सबसे पीछे अंगद, नील, जाम्बवन्त और हनुमान आदि योद्धाओ को मुखातिव करते हुए सुग्रीव इस प्रकार शिक्षा देकर उनको दक्षिण दिशा को भेजते है। हे तात। भगवान अन्तर्यामी है, वह सब किसी के दिल की अवस्था को जानते है। अगर जीव कपट रख कर सेवा करता है तो भी वह अपने अन्तरीव रूप से उस कपट को जानते है। यदि वह बाहर से छल कपट से वर्ताव करता है तो भी वह जानते है। इसलिए भाइयो अन्दर और बाहर दो प्रकार से छल- हीन होकर सच्चाई के साथ जो सेवा का अवसर आपको मिला है उसे सफल बनाओ अर्थात स्वामी के सन्मुख रहकर सेवा करो, सन्मुख रहने से आपको शक्ति मिलेगी। इतनी वार्ता सुग्रीव के मुख से सुनकर वह सब योद्धा आज्ञा मांग और चरणों में सिर निवा कर हृदय में भगवान का ध्यान और सुमिरण करते हुए चल पड़े। सब से पीछे हनुमान जी ने सिर निवाया। तब भगवान ने यह विचार कर कि कार्य तो इनसे होगा, अपने निकट बुलाया। सिर के ऊपर कमल सा हाथ धर कर और अपना दास जान कर सीता की पहचान के निमित्त अंगूठी उतर कर दी और बोले- हे महावीर। जानकी जी को बहुत प्रकार से समझा कर हमारा विरह तथा बल बताना और धैर्य देकर शीघ्र वापस लौटना। यह वचन सुन कर हनुमान जी ने अपना जन्म सफल माना और कृपा निधान भगवान के सुन्दर रूप को हृदय में धर कर चल पड़े। हनुमान, अंगद, नल, नील, जाम्बवन्त आदि सब योद्धा अपनी सेना को साथ लिये हुए सीता जी की खोज कर रहे है। जंगल, पहाड़, गुफा, नदियाँ, तालाब और कुंए सब ढूंढे परन्तु सीता जी का कहीं भी पता जब नहीं मिलता, तब कुछ निराश होकर चिन्तातुर हो जाते है। समुन्द्र के किनारे डर्ब बिछाकर बैठे हुए सोचते है कि अब क्या किया जाये, तब अंगद नेत्रों में जल भर के कहता है- हे भाईयो। अब दोनों और से हमारी मृत्यु पास आ गई है क्योंकि इधर तो सीता जी का कुछ पता नहीं चल रहा और उधर वापिस जाने सुग्रीव मारेंगे। अंगद जी के इस प्रकार के वचन सुनकर सब शूरवीर नीचे मुहं करके नेत्रों से जल बरसाने लगते है। इस सब में जाम्बवन्त बुजुर्ग थे और पुराने होने के कारण भगवान की महिमा को जानते थे। सब को दुखी देखकर बोले भाईयो। घबराओ नहीं, इस समय आप परीक्षा के एक ऐसे दौर से गुजर रहे है, जो दौर भक्ति और सेवकाई के रस्ते में अक्सर भक्तो पर आया करते है इसलिए जो कुछ भी रास्ते में आता जाये उसे भगवान की इच्छा समझो और अपने कर्त्तव्य का पालन करते चलो। मोक्ष पद का सुख सबसे ऊपर है, बाकी सम्पूर्ण सुख इसमें आ जाते है। किन्तु भक्ति मार्ग में सेवक को एक छोटे से सुख से लेकर मोक्ष तक के सुख का भी त्याग कर देना चाहिये।
इस प्रकार जब परस्पर वचन हो रहे थे, तब पहाड़ की गुफा में संपाती इनकी बाते सुन रहा था। बाहर निकल आया और इन सब को देखकर दिल में खुश हुआ कि आज विधाता ने बहुत अच्छा आहार दिया है। आज इन सब को भश्रण करूँगा। बहुत दिन से भूखा मरा जाता था। कभी पेट भर भोजन नहीं मिला था। सो आज विधाता ने एक ही बार दे दिया। गीध के वचन सुनकर सब वानर डरे कि अब निश्चय ही मरण होगा। तब जाम्बवन्त सोचने लगे कि संपाती को देखकर यह दशा हुई तो आगे क्या बनेगा। अंगद चूँकि पहले से जानते थे कि यह संपाती जटायु के समान दूसरा कौन भाग्यवान होगा जो श्री रामचन्द्र जी के कार्य में अपना शरीर त्यागकर बैकुण्ठ को गया। यह बाते ऐसे ऊँचे स्वर से कहीं गई कि संपाती सुन ले। फिर अंगद बोले- जो जटायु के समान श्री राम चन्द्र जी के चरण कमलो में चित्त लगता है उसके समान कोई धन्य नहीं है। यह हर्ष शोक युक्त वाणी सुनकर संपाती निकट आ गया। तब सब वानर सुनकर संपाती निकट आ गया। तब सब वानर डरे। जानकी जी की सुधि न मिलने और सुग्रीव के भय से कुछ तो पहले ही घबराये हुए थे, परन्तु अब संपाती को देखकर रहा सहा खून भी खुश्क हो गया। जब उसे देखकर सब भागने लगे तब संपाती ने सौगन्ध दिला कर खड़े किये। उन्हें अभयदान देकर संपाती बोला डरो मत। मै भी श्री रामचन्द्र जी का सेवक हूँ। तुम कौन हो अपनी कथा सुनाओ। तब उन्होंने जटायु के मरने का और सीता की सुधि के निमित्त अपने आने का वृतान्त सुनाया। तब संपाती ने भाई की करनी सुनकर बहुत प्रकार से भगवान की महिमा वर्णन की, तब वह अपनी कथा सुनाने लगा। हे शूरवीरो। सुनो, हम दोनों भाई पहले जोबन अवस्था में इर्ष्या वश सूर्ये के निकट उड़ गये। जटायु तो तेज न सह सका और वापस लौट आया। मै अभिमान के वश हो सूर्ये के निकट होने लगा। परन्तु सूर्ये के अपार तेज से मेरे पंख जल गये और घोर चीत्कार कर पृथ्वी पर गिर पड़ा। एक चन्द्रमा नाम के महात्मा थे, मुझे देखकर उनके दिल में दया आई। बहुत प्रकार से उन महात्मा ने सत्संग सुनाया और देह से उत्पन्न हुए अभिमान को दूर किया। तब वे बोले हे गीधराज। त्रेतायुग में भगवान मनुष्य का शरीर धारण करेंगे और उनकी स्त्री को रावण हर लेगा। उनकी खोज करने को वे दूत भेजेंगे तब उनके मिलने से तुम पवित्र हो जाओगे। तुम्हारे पंख नये जम आवेंगे, तुम चिन्ता मत करो। उन्हें तुम सीता दिखा देना। यह कहकर वह महात्मा अपने आश्रम को गये, उस समय हृदय में कुछ ज्ञान हुआ। फिर संपाती बोला हे भाईयो। मेरी एक कथा और सुनो। जो आपके लिए परम हितकारी है। मेरा सुर्षण नाम का पुत्र इस स्थान पर मेरी सेवा करता था। भूख से व्याकुल होकर एक दिन मैने उससे कहा, बेटा। शीघ्र कहीं से भोजन लाओ, नहीं तो प्राण निकलते है। पुत्र सिर पर आज्ञा धर कर चला। आकाश के मार्ग से एक घोर घने जंगल में जाकर उसने जंगल के अनेक जानवरों को मारा। सूर्ये के अस्त होने पर जब वह भोजन लेकर वापस आया तब मारे भूख के मुझे बड़ा क्रोध आया। मै नीच और क्रोध के वश पुत्र को शाप देने लगा। तब उसने मेरी बाँह पकड़ कर समझाया और कहा पिताजी। मेरी बात चित्त लगाकर सुनो। जब मै वन को शिकार के लिए गया तो वहाँ एक बड़ा उत्पात देखा। एक पुरुष जिसके दस सिर थे और बीस भुजा थी और शीघ्रता से मार्ग में चला जाता था उसके संग में एक सुंदर स्त्री थी। जिसका रूप कोई वर्णन नहीं कर सकता। उस पुरुष को भी एक जन्तु जानकर पीछे से पकड़ा और मारने लगा। परन्तु उस स्त्री को देखकर दया आई और उसे छोड दिया। मेरी बड़ी विनती करके और मुझसे छुटकारा पाकर वह दक्षिण दिशा को चला गया। इस कारण मुझे देर लग गई। वचन सुनते ही मुझे अंगार सा लगा अर्थात क्रोध आ गया। परन्तु अपनी गति न होने के कारण जी में हार गया कि मै अब पंखहीन क्या कर सकता हूँ। पुत्र से कहा अरे। मेरे तो पंख नहीं, तू ऐसा अवसर पाकर क्यों चूक गया। यह कह कर पुत्र के बल को धिक्कार दिया। अरे। तू उसे पकड़ कर मेरे पास क्यों नहीं लाया। वह तो रावण था और श्री रामचन्द्र जी की स्त्री को हरे जाता था। फिर मुझे उस महात्मा जी के वचन हृदय में फर आये कि भगवान सीता की खोज के लिए अपने दूत भेजेंगे। उनके दर्शन पाकर तुम्हारे पंख जम आवेंगे और तुम उनको मिलकर पवित्र होगे। ऐसा विचार कर मन को धीरज हुआ, सो उस दिन से प्रेम के साथ आपका मार्ग देखता था। सो आज उन महात्मा के वचन सत्य हुए। इसलिए मेरे वचनों को हृदय में धारण करो और भगवान का कार्य करो। और सुनो। त्रिकुट पर्वत के ऊपर लंकापुरी है। उस लंकापुरी में रावण का राज्य है। वहाँ अशोक नाम का एक बाग़ है वहाँ रावण की कैद में बैठी हुई जानकी जी सोचती रहती है। संपाती की वाणी सुनकर सब वानर दक्षिण दिशा को देखने लगे। संपाती बोला तुम यहाँ से उसे नहीं देख सकते परन्तु मै देखता हूँ। क्योंकि गीध की दृष्टि बड़ी अपार होती है। अब मै बूढा हो गया हूँ, नहीं तो आपकी कुछ सहायता अवश्य करता। सौ योजन समुन्द्र की चौडाई है जो कोई बुद्धिमान सौ योजन समुन्द्र लाँघ सके वही भगवान का कार्य कर सकता है जो कोई श्री भगवान का कार्य कर सके, उसके समान कोई बडभागी नहीं है। मुझे देखकर मन में धीरज धरो कि भगवान की कृपा से मेरा शरीर कैसा हो गया, फिर पंख जम आये। जब भगवान के सेवको के दर्शन से इतना लाभ हो सकता है तो तुम उस भगवान के सेवक होकर चिंता न करो। यह समुन्द्र सौ योजन का है किन्तु तुम उस भगवान के सेवक जिनका नाम सुमिरण से अनेक पापी संसारी रुपी समुन्द्र से पार हो जाते है जिसका कोई पारावार ही नहीं है।।
          

Wednesday, July 20, 2016

भक्तिवान के लिए सांसारिक धन कंकण पत्थर समान

कमाल साहिब परम संत श्री कबीर साहिब जी के गुरुमुख चेले थे और नाम भक्ति की सच्ची व सार सम्पदा से मालोमाल था। उनकी ख्याति सुनकर काशी नरेश ने उनकी परीक्षा लेने का विचार किया। वे एक अत्यंत मूल्यवान हीरा लेकर कमाल साहिब के पास गए और चरणों में हीरा रखते हुए कहा –‘मेरी ओर से यह तुच्छ भेंट स्वीकार करो।’ कमाल साहिब ने कहा कि मैं इस पत्थर के टुकड़े को लेकर क्या करूँगा? काशी नरेश बोले यह पत्थर नहीं बहुमूल्य हीरा है। इसे रख लीजिये, काम आएगा। कमाल साहिब ने हँसते हुए कहा –‘ऐसे कंकड़-पत्थर हजारो की संख्या में इधर उधर बिखरे पड़े है। क्या मैं अब भजन छोडकर उन पत्थरों को बटोरना शुरू कर दूँ?’ काशी नरेश फिर भी जिद्द पर अड़े रहे और बोले- ‘यह हीरा मैं आपकी झोपडी में रख जाता हूँ, आवश्यकता पड़ने पर आप इसे उपयोग में ला सकते हो।’ यह कहकर काशी नरेश ने वह हीरा उनके सामने ही झोपडी में रख दिया और वापिस चले गए। काफी समय के बाद वे फिर कमाल साहिब के चरणों में उपस्थित हुए और उनसे हीरे के विषय में पूछा। कमाल साहिब ने कहा-‘कौन सा हीरा?’ काशी नरेश ने कहा-‘वही हीरा जो मैं आपकी कुटिया में रख गया था।’ कमाल साहिब ने कहा –‘मुझे तो कुछ याद नहीं है जहाँ रखा हो वही से उठा लो।’ काशी नरेश ने देखा तो हीरा वहीँ पर वैसा का वैसा पड़ा हुआ था। हीरे को देखकर काशी नरेश को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने हीरा कमाल साहिब के समक्ष रखते हुए कहा –‘मैं इस हीरे की बात कर रहा हूँ। इसका मूल्य कई लाख है।’ कमाल साहिब हँसते हुए बोले –‘कमाल है। अभी भी आप वही गलती कर रहे है और इस पत्थर को हीरा कह रहे है।’ काशी नरेश समझ गए कि कमाल साहिब की दृष्टी में संसारिक धन-पदार्थ सब तुच्छ है। वे उनके चरणों में नतमस्तक हो गए। इसी प्रकार भक्तिमयी रबिया संसारिक दृष्टी से यधपि अत्यंत ही निर्धन थी, परन्तु नाम-भक्ति के सच्चे धन से मालोमाल थी। एक दिन एक धनवान व्यक्ति जिसके मन में रबिया के लिये बड़ा सम्मान था उसके पास आया। वह ऊंट पर सोने की मोहरे बांधके लाया था, जिनका मूल्य हजारो रुपए था। उसने वे स्वर्ण मुद्राएँ उसके सामने रखते हुए कहा कि मेरी ओर से यह तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये।
रबिया ने कहा –‘मैं इनका क्या करुँगी?’ उस व्यक्ति ने कहा कि आप प्रभु की भक्त है इसलिए मैं आपका बहुत आदर करता हूँ। आप इतनी निर्धनता में दिन गुजारे और फटे वस्त्र पहने ये मुझे सहन  नहीं होता। इसलिए मेरी ओर से ये तुच्छ भेंट स्वीकार करनी ही होगी।
राबिया ने कहा –‘मैं इन कंकडो को कहाँ संभालती फिरुंगी? उचित यही है कि आप इन्हें वापिस ले जाओ।’ उस व्यक्ति ने बहुत आग्रह किया, परन्तु रबिया किसी तरह भी वह धन न लेने को राजी हुई। वह व्यक्ति मन ही मन विचार करना लगा कि रबिया के पास ऐसे कौन सी मुद्राए है जिसके कारण ये इन स्वर्ण-मुद्राओ को पत्थरों से अधिक महत्व नही देती? वही वस्तु प्राप्त करने का मुझे यत्न करना चाहिए। यह विचार कर उसने अपना सारा धन दींन दुखियो में बाँट दिया और रबिया के सम्मुख उपस्थित होकर कहा ‘जिस वस्तु के कारण आप स्वर्ण मुद्राओ को पत्थर समझते है, मुझे भी वह प्रदान कीजिये।’ रबिया ने उसे प्रशिद्ध फ़कीर हसन बंसरी के पास जाने का परामर्श दिया। रबिया के परामर्श के अनुसार बंसरी का शिष्यत्व ग्रहण किया। उसकी कृपा से वह भक्ति के सच्चे धन से मालोमाल हो गया। 

Friday, July 15, 2016

सेहत का राज


बादशाह ने बीरबल से पूछा-ये साहूकार किस चक्की का आटा खाते हैं? जो इतने मोटे-ताज़े होते हैं। बीरबल बोला-जहांपनाह! ये लोग जो खाते हैं, वह आप नहीं खा सकते। बादशाह ने फिर पूछा-बीरबल! बताओ तो सही ये क्या खाते हैं? बीरबल ने कहा-मौका आने पर बताऊँगा। एक दिन बादशाह और बीरबल हाथी पर बैठकर शहर में घूमने निकले। बाज़ार में पहुंचे, एक सेठ की दुकान पर भिखारियों की जमात मांगने के लिए आई। एक आने की भीख मांगी, सेठ बोला-एक पैसा दूंगा। भिखारियों ने कहा-एक आना लिए बिना हरगिज़ नहीं जाएंगे। सेठ ने सोचा, बादशाह की सवारी आ रही है। ये लोग मगज़पच्ची कर रहे हैं, यह सोचकर उसने बला टालते हुए कहा-लो एक आना, एक ढीठ भिखारी ने कहा, अब हम नहीं लेंगे, दो आना लेकर जाएंगे, बीरबल ने बादशाह को सेठ की दुकान पर हो रहे तमाशे की ओर संकेत किया। सेठ ने हालात की नज़ाकत को समझते हुए दो आने  दे दिए। इतने में तीसरा भिखारी चिल्लाया-आपने हमारा अमूल्य समय नष्ट किया। अब हम दो आना नहीं, चार आना लेंगे। सेठ ने देखा, बादशाह की सवारी बहुत नज़दीक आ गई। ये पागल लोग दुकान से हट नहीं रहे हैं, इसी खींचातानी व उधेड़बुन में सेठ दुःखी हो गया, आखिर मांगते-मांगते वे लोग एक रुपया लेकर रवाना हुए, जाते-जाते झल्लाते हुए एक भिखारी ने सेठ के मुंह पर थप्पड़ मारा, धक्का-मुक्की में सेठ की पगड़ी नीचे गिर पड़ी, बादशाह बिल्कुल नज़दीक पहुँच गए। सेठ जल्दी से अपनी पगड़ी बाँधकर दुकान पर बैठ गया। चेहरे पर तनिक भी विषाद की रेखा नहीं आने दी। वही मुस्कुराहट, वही उल्लास, मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। बीरबल और बादशाह सब कुछ निहार रहे थे। सेठ ने सवारी को एकदम दुकान के पास देखा। मुस्कराते हुए बादशाह को सलाम किया। सवारी आगे बढ़ गई। बीरबल बोला, जहांपनाह, देखा आपने अनूठा तांडव, मांगने वाले रुपए भी ले गए और सेठ को थप्पड़ भी जमा गए। सेठ जी का इतना अपमान होते हुए भी उन्होने गुस्सा नहीं किया। कितनी खामोशी रखी। आपने पूछा कि यह साहूकार लोग क्या खाते हैं। हुज़ूर ये लोग गम खाते हैं, इसीलिए मोटे-ताज़े रहते हैं, क्या ऐसा गम आप खा सकते हैं? बादशाह बोला-बीरबल! ऐसा गम मैं नहीं खा सकता, थोड़े से अपमान पर भी मुझे क्रोध आ जाता है, बीरबल ने हँसते हुए जवाब दिया-इसीलिए आप दुबले-पतले हैं।

Monday, July 11, 2016

मन बेचे सतगुरु के पास तिस सेवक के कारज रास।।


अहंकार जिस भेंट के साथ जुड़ा है वह अपवित्र हो जाती है। चाहे दुनियाँ का साम्राज्य भी लेकर जाओ। निरंहकार भाव से तुम खाली हाथ लेकर भी गये तो वह भेंट स्वीकार हो जाती है।
     महात्मा बुद्ध के जीवन में उल्लेख है। एक सम्राट बुद्ध से मिलने आया। स्वभावतः सम्राट है तो उसने एक बहुमुल्य कोहेनूर जैसा हीरा अपने हाथ में ले लिया। चलते वक्त उसकी पत्नी ने कहा कि पत्थर ले जा रहे हो। माना कि मुल्यवान है लेकिन बुद्ध के लिये इसका क्या मूल्य, जिसने सब साम्राज्य छोड़ दिया उसके लिये पत्थर ले जा रहे हो। यह भेंट कुछ जँचती नहीं। अच्छा तो हो कि अपने महल के सरोवर में पहला कमल खिला है मौसम का, वही ले जाओ। वह कम से कम जीवित तो है। इस पत्थर में क्या है? यह तो जड़ है बिल्कुल बन्द है। बात उसे जँची सोचा कि एक हाथ खाली भी है पत्थर तो ले ही जाऊँगा। क्योंकि मुझे तो यही कीमती लगता है। वही चढ़ाऊँगा जिसका कुछ मुल्य है लेकिन तू कहती है हो सकता है तेरी बात भी ठीक हो। बुद्ध को मैं जानता नहीं कि किस प्रकार के आदमी है। एक हाथ में कमल एक हाथ में हीरा लेकर सम्राट, बुद्ध के चरणों में गया। जैसे ही बुद्ध के पास पहुँचा और हीरे का हाथ उसने आगे बढ़ाया बुद्ध ने कहा गिरा दो। मन में उसके अहंकार को बड़ी चोट लगी। चढ़ा दो नहीं, गिरा दो कहा। बहुमुल्य चीज़ है गिराने के लिये कहा। अगर अब गिराया नहीं तो भी फज़ीहत होगी हज़ारों भिक्षु देख रहे हैं। उसने बड़े बेमन से गिरा दिया। सोचा शायद पत्नी ने ठीक ही कहा था। दूसरा हाथ आगे बढ़ाया और ज़रा ही आगे बढ़ा था कि बुद्ध ने फिर कहा गिरा दो। सम्राट सोचने लगा कि ये कुछ भी नहीं समझते। न बुद्धि की बात, न ह्मदय की बात समझते हैं। बुद्धि के लिये हीरा था, गणित था धन था। प्रेम, कमल है, ह्मदय का भाव है और इसको भी कहते हैं गिरा दो। मेरी पत्नी तो इनके चरणों में रोज़ आती है। वह इन्हें पहचानती है। उसने जब गिरा दिया तो वह खाली हाथ बुद्ध की तरफ झुकने लगा। बुद्ध ने कहा, गिरा दो। सोचने लगा अब कुछ है ही नहीं  गिराने को दोनों हाथ खाली हैं। उसने कहा अब क्या गिरा दूँ? बुद्ध तो चुप रहे बुद्ध के एक भिक्षु ने सारिपुत्त ने कहा, अपने को गिरा दो। हीरे और कमलों को गिराने से क्या होगा? शुन्यवत हो जाओ तो ही उनके चरणों का स्पर्श हो पाएगा। तुम बचे चरण दूर। तुम मिटे चरण पास। तब कहते हैं सम्राट को उसी क्षण बोध हुआ। वह गिर गया। जब उठा दूसरा ही आदमी था, महल की तरफ वापिस न गया भिक्षु हो गया। किसी ने समझाया इतनी जल्दी। उसने कहा जब मैं ही न रहा तो वापिस कौन जाये? जो आया था वह अब नहीं है, अब बुद्ध मुझमें समा गये हैं।

Friday, July 8, 2016

जो लिया गुरु से-दो बता गुरु का

श्री प्रथम पादशाही जी ने एक बार वचन फरमाये कि एक तालाब के किनारे एक बगुला रहता था उसका यह स्वभाव था कि जब कभी मछली पकड़ता, उसको अपनी चोंच से पकड़ कर आकाश की ओर उछालकर फिर उसे अपनी चोंच से रोकता और निगल जाया करता। एक व्यक्ति ने उसे ऐसा करते देखकर मन में विचार किया कि इस करतब को सीखना चाहिए और वह मुहं से लकड़ी उछालकर दांतों पर रोकने का अभ्यास करने लगा। धीरे-धीरे उसे अभ्यास हो गया। वह लोहे के भाले को उछालकर दांतों पर रोकने का अभ्यास करने लगा। धीरे-धीरे उसे ऐसा अभ्यास हो गया वह लोहे के भाले को उछालकर अपने दांतों पर रोकने लगा। उसके इस करतब की प्रसिद्धी दूर-दूर तक फ़ैल गई। एक राजा ने भी उस व्यक्ति के विषय में सुना और यह तमाशा देखने के लिए उसको अपने दरबार में बुलवाया। उसके करतब को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और उसने पूछा कि तुमने यह करतब कहां से सीखा और तुम्हारा गुरु कौन है। उस व्यक्ति को बगुले का नाम बताने में शर्म महसूस हुई। अत: वास्तविकता को छिपा कर कहने लगा- "राजा साहिब। मैंने यह करतब किसी से नहीं सीखा, यूँही अपने आप ही मुझको आ गया है राजा बड़ा दूरदर्शी था। वह अपने मंत्री से कहने लगा-इसको अपने गुरु का नाम लेने में शर्म आ रही है इसका कभी कल्याण ना होगा"। और हुआ भी ऐसा ही। दोबारा करतब दिखाते हुए जब वह भाला दांतों पर रोकने लगा, तो उसके शरीर का संतुलन बिगड़ गया जिससे उसका मुहं खुल गया और भाला उसके गले से नीचे उतर गया और उसकी मृत्यु हो गई। यह कथा सुनकर श्री परमहंस दयाल जी ने फ़रमाया- सतगुरु तो तत्वज्ञान का उपदेश देते और भक्ति की दात बक्शते है, परन्तु उनके अतिरिक्त परमार्थी जीव को जहाँ कहीं से भी शिक्षा मिले, उसे वह शिक्षा ग्रहण कर लेनी चाहिए और उस प्राणी अथवा पदार्थ को अपना गुरु मान लेने तथा उसका नाम लेने में झिझकना नहीं चाहिए।।

Sunday, July 3, 2016

सच्चा धन

बौद्ध भिक्षु श्रोण को देखने-सुनने हज़ारों व्यक्ति नगर के बाहर एकत्र हुए थे। उनका चित्त निर्वात् स्थान में जलती दीपशिखा की भांति थिर था। उस समूह में एक धनी महिला कातियानी भी बैठी थी। संध्या हो चली तो उसने अपनी दासी से कहा,"तू जाकर घर में दीया जला दे। मैं तो यह अमृतोपम उपदेश छोड़कर उठूंगी नहीं।' दासी घर पहुंची तो वहां सेंध लगी हुई थी। अंदर चोर सामान उठा रहे थे और बाहर उनका सरदार रखवाली कर रहा था। दासी उल्टे पांव वापस लौटी। चोरों के सरदार ने भी उसका पीछा किया। दासी ने कातियानी के पास जाकर घबराए स्वर में कहा; "मालकिन, घर में चोर बैठे हैं।' किन्तु कातियानी ने कुछ ध्यान न दिया। वह किसी और ही ध्यान में थी। वह तो जो सुनती थी, सो सुनती रही। जहां देखती थी, वहां देखती रही, वह तो जहां थी, वहीं बनी रही। वह किसी और ही लोक में थी उसकी आँखों में आनंदाश्रु बहे जाते थे, दासी ने घबराकर उसे झकझोरा,"माँ! माँ! चोरों ने घर में सेंध लगाई है। वे समस्त स्वर्णाभूषण उठाए लिए जा रहे हैं।' कातियानी ने आँखें खोलीं और कहा,"पगली! चिन्ता न कर, जो उन्हें ले जाना है, ले जाने दे। वे स्वर्णाभूषण सब नकली हैं। मैं अज्ञान में थी। इसलिए वे असली थे। जिस दिन उनकी आँखें खुलेंगी, वे भी पायेंगे कि नकली हैं। आँखें खुलते ही वह स्वर्ण मिलता है, जो न चुराया जा सकता है,  न छीना ही जा सकता है। मैं उस स्वर्ण को ही देख रही हूँ। वह स्वर्ण स्वयं में ही है।' दासी तो कुछ भी न समझ सकी। वह तो हतप्रभ थी और अवाक् थी। उसकी स्वामिनी को यह क्या हो गया था? लेकिन चोरों के सरदार का ह्मदय  झंकृत हो उठा। उसके भीतर जैसे कोई बंद द्वार खुल गया। उसकी आत्मा में जैसे कोई अनजला दीप जल उठा। वह लौटा और अपने मित्रों से बोला," मित्रो! गठरियाँ यहीं छोड़ दो, यह स्वर्णाभूषण सब नकली हैं और आओ, हम भी उसी सम्पदा को खोजें जिसके कारण गृहस्वामिनी ने इन स्वर्णाभूषणों को नकली पाया है। मैं स्वयं भी उस स्वर्णराशि को देख रहा हूँ। वह दूर नहीं, निकट ही है। वह स्वयं में ही है।'