Sunday, January 31, 2016

चाहे कहीं चले जाओ मन साथ है


     एक आदमी भाग गया परेशान होकर। दिन-रात की कटकट-पत्नी, बच्चे,दुकान,ग्राहक, कहीं कोई शांति नहीं। जंगल भाग गया।एक झाड़ के नीचे जाकर बैठा था आराम से।देखा, एक कौअे ने बीट कर दी। नाराज़ हो गया। उठा लिया पत्थर कौअे को मारने को।तब उसे ख्याल आया कि जंगल आये थे शांति के लिए, यह कौआ यहां भी है। पत्नी से भाग जाओगे, कौओं से कहां भागोगे?
     वह बहुत दुःखी हो गया।उसने कहा,संसार में कोई सार नहीं,उसने जाकर नदी के किनारे लकड़ियां इकट्ठी कीं। खुद की चिता बना रहा था। लकड़ियां काट कर इंतज़ाम जब तक वह कर पाया तब तक पास के गांव में खबर पहुँच गई।वहां से लोग आ गये।उन्होने कहा कि भैया ज़रा दूर ले जाओ,यहां जलोगे तो बास गांव में पहुँचेगी। तो उस आदमी ने कहा,न जिंदा रहने देते,न मरने देते। न जीने की स्वतन्त्रता है, न मरने की कोई स्वतन्त्रता है। तुम अगर उथले हो,अर्थात अगर तुम्हे कोई भी नाराज़ कर सकता है,कोई भी प्रसन्न कर सकता है तो।भाग कर जाओगे भी कहां। तो न तुम जीओगे, न तुम मरोगे, तुम दोनों के बीच घिसटोगे, वही तुम्हारी स्थिति है।

Saturday, January 30, 2016

मुज़रिम को भी शक हुआ कि मैने जुर्म किया


एक आदमी ने हत्या की। उस पर अदालत में मुकदमा चला। मुकदमा लंबा चला। कई गवाह थे,कई वकील थे,जो मारा गया वह बड़ा पैसे वाला आदमी था।जिसने मारा वह भी बड़ा धनपति,प्रतिष्ठित आदमी था। मुकदमा भारी था।कोई तीन साल के बाद,निर्णय तो दूर,जैसा कि अक्सर अदालत में होता है सब चीज़ेंऔर संदिग्ध हो गर्इं। जितने गवाहआये एक दूसरे के विपरीत थे। फाइलें इकट्टी होती गर्इं, निर्णय दूर रहा,आखिर मजिस्ट्रेट घबड़ा गया और उसने कहा,दिखता है इस सबसे हल नहीं होगा। हत्यारे से उसने कहा,तो मैं तुमसे ही पूछता हूँ, तुम सच-सच बता दो और हम निर्णय कर दें।अब कोई उपाय नहीं दिखता और।जितना खोजा उतने भटक गये। और यह तो जंगल में जैसे रास्ता न मिलता हो, ऐसी हालत आ गई। अब तुम पर निर्भर है। उस आदमी ने कहा, कि यही अगर था, तो पहले ही पूछ लेना था। मैं खुद ही उलझ गया। पहले मुझे भी भरोसा था कि हत्या की  है, लेकिन तीन साल अदालत की कार्यवाही,वकीलों के जवाब-सवाल,अब तो मुझे भी शक हो गया। तुमने देर कर दी। अब तो पक्के विश्वास से मैं नहीं कह सकता कि मैने की या नहीं की। तीन साल पहले मुझे ख्याल था। वह भ्रांति ही रही होगी।
     हर आदमी की ज़िन्दगी में ऐसा घटता है। धीरे-धीरे झूठ बहुत बार पुनरुक्त होने पर जड़ जमा लेता है। जब दूसरे उस पर भरोसा करते हैं, और उनकी आँखों में भरोसा दिखाई पड़ता है, तुम्हारी आँखें भी भरोसे से भर जाती हैं। जब कोई व्यक्ति स्वयं के अध्ययन में उतरेगा, स्वाध्याय करेगा,तो पहले तो इस जाल के भीतर प्रवेश करना पड़ेगा,जो तुमने झूठ का खड़ा कर रखा है। यही कठिनाई है। इससे तुम पार हो गये, इस दलदल से पार हो गये, फिर तो स्वच्छ सरोवर है। पर यह दलदल बड़ा है। और इसी से पार होने में हिम्मत की ज़रूरत है। क्योंकि बड़ी पीड़ा होगी।जब तुम पाओगे तकि तुमने अपने संबंध में जो सत्य मान रखे थे, वे सभी झूठ हैं। जब तुम पाओगे मेरी मुस्काराहट सच्ची नहीं,मेरी आँखों की चमक सच्ची नहीं मेरा प्रेम सच्चा नहीं कुछ भी सच्चा नहीं है। जब तुम पाओगे मेरे सारे अंतरसंबंध,परिवार समाज सब धोखा है।और हर चीज़ के नीचे कहीं कोई आधार नहीं, सब निराधार खड़ा है तुम बहुत घबड़ा जाओगे।इस घबड़ाहट से गुज़र जाये वही साधू है वही तपस्वी है।

Friday, January 29, 2016

छीत्तस्वामी ने सड़ा नारियल भेंट किया


इसी प्रकार छीतस्वामी जी की कथा भी पढ़ने सुनने और मनन करने योग्य है।वे मथुरा के एक चौबे के लड़के थे,परन्तु बचपन से ही कुसंगति में पड़करअसाधु प्रकृति के हो गये थे।अपनी टोली केसाथ प्रत्येक व्यक्ति को परेशान करना मानो उनका ध्येय ही था। मथुरा में रहने वाले तथा वहां आने जाने वाले साधु महात्माओं को भी वे बहुत तंग किया करते थे। जब छीतस्वामी जी की आयु बीस वर्ष की हुई, उन दिनों की घटना है। गोसार्इं विट्ठलदास जी जो कि उच्चकोटि के सन्त थे और गोकुल में निवास करते थे, उनकी महिमा चारोंओर फैल रही थी।छीतस्वामी ने भी उनकी महिमा सुनी और अपने साथियों सहित गोकुल जा धमके। उन्होने गोसार्इं विट्ठलदास जी के चरणों में पहुँचकर मत्था टेकाऔर मज़ाक के रूप में कुछखोटे रुपयेऔर सड़ा नारियल भेंट किया।गोसार्इं विट्ठलदास जी ने छीतस्वामी की ओर देखाओर मुस्कराते हुए बोले-तुम्हारे इस उत्तम उपदेश के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।
     छीत स्वामी तो यह आशा लगाए बैठे थे कि खोटे सिक्केऔर सड़ा नारियल देखकर गोसार्इं जी क्रुद्ध हो उठेंगे और तब अपनी मंडली सहित वे उन्हें परेशान करेंगे, परन्तु यह अप्रत्याशित शब्द सुनकर वे चौंक उठे। उन्होने कहा-उपदेश कैसा? गोसार्इं जी बोले-अरे भैया!खोटे सिक्कों द्वारा तुम हमेंयही तो उपदेश करना चाहते हो न कि इनकी तरह ही संसार की प्रत्येक वस्तु खोटी है। खरा तो केवल प्रभु का नाम, प्रभु का प्रेम और भक्ति है।और सड़े नारियल से तुमहमें यह जलताना चाहते हो कि संसार में जितने भी खाद्य पदार्थ हैं, सब समय पाकर सड़ जाते हैं,फिर इनके द्वारा पोषित हुआ शरीर सदा स्वस्थ कैसे रह सकता है? उसका भी तो एक दिन यही परिणाम होना है। वह दिन आए उससे पहले ही भजन-सुमिरण करके मनुष्य को अपना परलोक संवार लेना चाहिए।छीतस्वामी जी पर इन वचनों का ऐसा गहरा प्रभाव पड़ा कि वे गोसार्इं जी के चरणों में लिपट गएऔर अपनेअनुचित व्यवहार के लिए क्षमायाचना की,अपितु उनके परमश्रद्धालु शिष्य बन गए। गोसार्इं जी के मधुर वचनों ने उन्हें सदा के लिए अपना बना लिया। तभी तो कहा गया है।
          ""जहाँ राम होता है मीठी ज़ुबाँ से''
उर्दू में राम का अर्थ है--वश में होना।अर्थात मीठी ज़ुबान से सारा संसार वश में हो जाता है। इसके विपरीत कटु वचनों से मित्र भी शत्रु बन जाते हैं कटु एवं कठोर वचन तीर के समान दिल में घाव करते हैं। तीर का घाव तो धीरे धीरे भर जाता है, परन्तु कटु वचनों का घाव कभी नही भरता। वह सदा ह्मदय को सालता रहता है। कथन भी हैः-
         करगस सम कड़वे वचन, घाव करैं गंभीर।।
         जाके  हिरदय  में लगें,  सालें सदा सरीर।।
द्रौपदी के ये वचन कि""अन्धे की सन्तान अन्धी ही होती है।''दुर्योधन के ह्मदय को सदा सालते रहे और इसका जो दुष्परिणाम हुआ वह सबको विदित ही है। इसलिए कोयल से शिक्षा ग्रहण कर सदा मधुर वचन बोलो। कौए की तरह कभी कर्कश अथवा कटु वचन न बोलो। सन्तों के ये वचन सदैव स्मरण रखो।
          तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर।
          वशीकरण यह मंत्र है, तजि दे वचन कठोर।।

Thursday, January 28, 2016

भिखारी ने वृद्धा को कटु वचन कहे


     एक भिखारी था जो भीख मांग कर गुज़ारा करता था चूँकि वह गुरु-शब्द से खाली था,अतएव उसका मन सदा चंचल बना रहता था। इस कारण जिह्वा पर भी उसे नियंत्रण नहीं था। एक दिन भीख मांगने गया तो उसे भीख में चावल और मूँग की दाल मिली। ले गया एक बुढ़िया के पास। उसे कहा कि मुझे इस चावल दाल की खिचड़ी पका दो। बुढ़िया ने आग जलाई और चावल-दाल को देगची मे डाल कर चूल्हे पर पकने को धर दिये। जितनी देर तक खिचड़ी बने,उतनी देर तक भी उस भिखारी से चुप न बैठा गया। मन और जिह्वा पर नियंत्रण
तो था नहीं, सोचने लगा कि यह वृद्धा अकेली रहती है इसकी गुज़र कैसे होती होगी?अऩ्ततः बुढ़िया से पूछ ही लिया कि तुम्हारी गुज़र-बसर कैसे होती है?बुढ़िया ने कहा कि मेरे पास एक भैंस है,उसका दूध बेच कर अपना पेट पालती हूँ। भिखारी बोला-तुम्हारे घर का द्वार तंग दिखाई देता है, कहीं तुम्हारी भैंस इसमें फँस कर मर गई तो तुम क्या करोगी?
    बुढ़िया को यह बातअच्छी न लगी,बोली-ऐसेअशुभ वचन मत बोलो, वरनाअधपके चावल दाल लेकरअपना रास्ता नापो। भिखारी ने अऩुनय-विनय की और चुप बठने का वचन दिया।किन्तु उसका चंचल मन बिना शब्द के ताले के चुप न रह सका।कठिनता से एक मिनट बीता तो फिर पूछा कि तुम अकेली होअथवा तुम्हारी कोई सन्तान भी है? माई बोली- मेरा एक लड़का है मोटर ड्राइवरी का काम सीख रहा है।भिखारी बोला-मोटर दुर्घटना हो जाय और तुम्हारा लड़का मर जाये तो क्या करोगी?
     माई से उसकी बात सहन न हो सकी। अधपकी खिचड़ी की देगची उतार कर बोली-यह लो अपनी खिचड़ी और तत्काल नौ दो ग्यारह हो जाओ। उसके पास बर्तन तो था ही नहीं, चादर की झोली में खिचड़ी डलवाई और अपने भाग्य को कोसता हुआ वहां से चल दिया। मार्ग में चावलों की मांड बहती जा रही थी। किसी ने पूछा कि यह क्या बह रहा है? भिखारी बोला-यह मेरे मुख से निकले हुये कटु वचनों का परिणाम है, जो मेरी झोली में पड़ा हुआ है, वही बह रहा है। इसी पर गुरुवाणी में वचन है किः- सहु वे जीआ अपणा कीआ।।

Wednesday, January 27, 2016

फकीर की सब नमाज़ें कबूल हुर्इं


     इस्लाम धर्म के पैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहिब एक दिन सार्इं साहिब नामक एक फकीर से मिलने गये। उस समय वे अपने डेरे पर उपस्थित नहीं थे।हज़रत मुहम्मद साहिब ने देखा कि जिस शिला पर सार्इं साहिब नमाज़ पढ़ा करते थे,उस पर उनके घुटनों,पैरऔर पंजों के निशान पड़ गये थे। अर्थात् सजदा करते रहने से पत्थर  घिस गया था। हज़रत साहिब ने उन निशानों को देखकर सोचा कि जब कि नमाज़ पढ़ते पढ़ते पत्थर पर इतने गहरे निशान पड़ गये हैं तो फकीर साहिब के ह्मदय में तो मालिक का प्रेम अत्यधिक घर कर चुका होगा और उनकी सब नमाज़ें मालिक की दरगाह में स्वीकृत हो चुकी होंगी।
     अभी वे मन में यह सोच ही रहे थे कि आकाशवाणी हुई कि सार्इं साहिब की एक भी नमाज़आज तक मालिक की दरगाह में स्वीकृत नहीं हुई।यह सुनकर हज़रत साहिब अत्यन्त विस्मित हुए। कुछ समय पश्चात् जब सार्इं साहिबअपने डेरे में वापसआये तो बातों-बातों में हज़रतमुहम्मद साहिब ने उनसे आकाशवाणी के विषय में बतला दिया।यह सुनकर सार्इं साहिब प्रसन्नता से नाच उठे। मुहम्मद साहिब ने जब उनसे इस प्रसन्नता का कारण पूछा तो सार्इं साहिब ने कहा कि नमाज़ के स्वीकृत अथवा अस्वीकृत होने से हमारा कोई प्रयोजन नहीं है।और स्वीकृत करना या न करना ये उसका काम है।हमें प्रसन्नता इस बात की है कि मालिक को इतना तो ध्यान है कि मेरा अमुक भक्त प्रतिदिन नमाज़ अदा करता है। मेरे लिये यही बहुत है।अभी ये बातें हो ही रही थीं कि हज़रत मुहम्मद साहिब पर फिर आकाशवाणी हुई कि सार्इं साहिब ने आज तक जितनी नमाज़ें पढ़ी हैं, वे सब की सब आज दरगाह में स्वीकृत हो गर्इं। यह सुनकर हज़रत साहिब भी अत्यन्त प्रसन्न हुये।
     इसमें भेद केवल यही था कि उन फकीरसाहिब ने नमाज़ पढ़ने का कोई प्रतिकार नहीं मांगा था।यह सुनकर कि मेरी एक भी नमाज़ स्वीकृत नहीं हुई,यदि वे खेद प्रकट करते और यह सोचते कि मैने ऐसा कौन सा पाप किया है जो मेरी एक भी नमाज़ स्वीकृत नहीं हुई और शिकायत करते,तो वे उस दात से जो उनपर उतरी,वंचित रह जाते। विचारवान और विवेकहीन में यही अन्तर होता है कि विचारवान जिस कार्य को निष्काम भाव से अपना कर्तव्य समझ कर करता है,अज्ञानी व्यक्ति उसी काम को स्वर्थपरता और किसी न किसी वांछा को दृष्टिगत रख कर करता है और अपने को दोषी बनाता है।
          मुरतकिब होता है जाहिल शखसीअत से जुर्म का।
          आरिफे-आज़ादा रु करता है दुनियाँ का भला।।(3/25)
अर्थः- जिन कर्मों को अज्ञानीजन आसक्ति रख कर करते हैं, ज्ञानी उन्हीं कर्मों को संसार की भलाई के लिये आसक्ति रहित हो करता है।
    जब लगु मनि बैकुण्ठ कीआस।। तब लगु होइ नहीं चरन निवास।।

Tuesday, January 26, 2016

जहाँ सुमति वहाँ सम्पत्ति नाना


एक सत्संगी परिवार था उस घर में सदा शान्ति रहती थी। वहां के सभी जनों का परस्पर प्रेम था। ""एक ने कही दूसरा ने मानी'' यह कहावत उन पर लागू होती थी। एक समय उस प्रान्त में दुर्भिक्ष पड़ गया। अनाज को आग लग गई। उन लोगों का निर्वाह भी बड़ी कठिनाई से होने लगा। उस समय घर के एक वृद्ध सज्जन ने कहा चलो, जंगल में जाकर कोई फल आदिक भी ढूँढ लेंगे और श्रमकार्य करके कुछ धन प्राप्ति भी हो जायेगी। सब के सब एक ही स्वर में मान गये और उठकर चल दिये। जंगल में पहुँचे। फलादिक खाये। जल पिया। उस समय उसी वृद्ध ने किसी को घास काटने, किसी को पानी लाने की आज्ञा दी। सब आज्ञा मान कर अपने अपने कार्यों में लग गये। घास और पानी के आ जाने पर वृद्ध बोले, घास को भिगो लो। उसे कूट काट कर एक रस्सी तैयार करो। सभी रस्सी बनाने में जुट गये। उस काल में अकस्मात लक्ष्मी जी का आगमन हुआ और उन लोगों से (जो रस्सी बना रहे थे) पूछा-यह क्या कर रहे हो? उन्होने उत्तर दिया कि हम रस्सी बना रहे हैं। लक्ष्मी देवी ने फिर पूछा कि, यह रस्सी किसलिये बना रहे हो? उत्तर मिला कि, तुझे बाँधने के लिये। सहज स्वभाव से उनके मुँह से ये शब्द सुनकर लक्ष्मी देवी जी डर गर्इं और बोलीं कि मुझे न बाँधो, मैं तुम्हें अनाज-कपड़ा और अनेक धनपदार्थ देकर मालामाल कर देती हूँ। उन्होने स्वीकार कर लिया और लक्ष्मी ने उन्हें एक पल के अन्दर ही निहाल कर दिया। अनेक पदार्थों से समृद्ध होकर जब वे सहर्ष अपने घर में लौटे तो एक पड़ौसी ने पूछा कि, आपको यह सब ऐश्वर्य-सामग्री कहाँ से मिली? उन्होने सारी गाथा कह सुनाई। यह सुनकर उसके मन में स्पर्धा जाग उठी।
           हंसां वेख तरन्दियां, बगां भी आया चाओ।
           डुब मोये बग बपड़े, सिर तल ऊपर पाओ। ।
ईष्र्या करने वाले पड़ोसी की दशा भी बगुले की तरह हुई। क्योंकि उसको भी ईष्र्या तो हुई कि मैं भी कुटुम्बियों के साथ जंगल में जाकर रस्सी बनाता हूँ और उस देवी जी को डरा कर माल-पदार्थ ले आऊंगा। इस घर के सब मनुष्य एक दूसरे के दोष देखने वाले थे। इस लिये उन के घर में सदा ही झगड़ा बना रहता था। जब घर के वृद्धो ने सबको कहा कि चलो-जंगल में तो हर किसी ने आनाकानी की। किसी का मुंह किसी तरफ। और किसी का मुँह किसी तरफ। किसी की एक राय किसी की दूसरी। बहुत प्रयत्न करने के बाद वह सबको समझा-बुझा कर बन में ले गया। जब वहाँ पहुँचे-तब उसने एक से कहा कि तुम जाकर घास काट लाओ और दूसरे को कहा कि तुम पानी भर लाओ। दोनों ने तुरन्त उत्तर दे दिया कि तुम आप जाकर यह काम करो, हम से तो नहीं होता। इस पर वह आप ही जाने को बाध्य हो गया। थोड़ा बहुत घास काट लाया और पानी भी ले आया। सबको फिर बुलाकर कहा कि आओ, रस्सी तैयार करें। यह सुनकर सब एक दूसरे का मुँह देखने लगे और कहने लगे कि तुम जाओ-वह कहे कि तुम जाओ-जाने को कोई भी उद्यत न हुआ। इस तरह बहुत देर तक वाद-विवाद होता रहा। बहुत प्रयत्न करने के उपरान्त टूटे मन से उन्होने काम शुरु कर दिया। उसमें कोई सम्मिलत हुआ कोई नहीं। उसी अवसर पर भाग्यवश लक्ष्मी देवी जी भी उधर आ निकलीं। उन्होने पूछा कि, यह क्या कर रहे हो? उन्होने उत्तर दिया कि, हम रस्सी बना रहे हैं। लक्ष्मी जी ने पुनः पूछा किसलिये? उन्होने झट से कहा, तुम्हें बाँधने के लिये। लक्ष्मी जी ने कहा कि तुम लोगों ने जबकि अपने आप को प्रेम के तार में नहीं बाँधा तो मुझे क्या बँधोगे? तुम लोग मुझे कदापि नहीं बाँध सकते। मुझे तो वे लोग बाँध सकते हैं जिनका आपस में संघटन होता है। संघटन उनका हो सकता है जो एक दूसरे के अवगुणों को नहीं देखा करते ऐसा कहकर लक्ष्मी देवी वहाँ से अदृश्य हो गई। वे सब लोग हताश होकर वहाँ से खाली हाथ ही लौट आये।
     इस उदाहरण से यह सिद्ध हुआ कि जिस घर के लोग आपस में सुमति से रहते हैं वहाँ सुख-सम्पत्ति का निवास होता है। यदि वे एक दूसरे के अवगुणों पर ही दृष्टि रखेंगे तो आपस में मेल-मिलाप न होने से दिन दिन वे हानि की तरफ जायेंगे। परमार्थ में भी देखा जाये तो उन्नति और सफलता वहीं दृष्टिगोचर होगी जहाँ इस अमर वचन पर अमल होगा।

Monday, January 25, 2016

ययाति की कथा


आदमी अमर क्यों होना चाहता है?क्योंकि जीवन छोटा मालूम पड़ता है और वासनाएं इतनी बड़ी मालूम पड़ती है कि पूरी नहीं होती। अरबों खरबों रूपये जमा करने हैं।बड़े पदों पर पहुँचना है, सारे साम्राज्य को निर्मित करना है। आकाँक्षाए अनन्त हैं और जीवन थोड़ा है यह अड़चन है इसलिये आदमी अमरता चाहता है।कहीं कोई अमृत मिल जाये,कहीं कोई पारस मिल जाये कि छूते ही आदमी अमर हो जाए।बस फिर कोई दिक्कत नहीं है फिर कितनी ही हों वासनाएँ सभी को पूरा करके रहेंगे। लेकिन वासनाओं का स्वभाव दूष्पूर है। वासनाएं इसलिये पूरी नहीं होती कि तुम्हारा जीवन छोटा है ऐसा मत समझना।वासनाएं इसलिये पूरी नहीं होती कि पूरा होना उनका स्वभाव नहीं है।
     ययाति की बड़ी प्रसिद्ध कथा है वह मरने के करीब हुआ वह सौ साल का हो गया था। मृत्यु लेने आई गिड़गिड़ाने लगा। वह बड़ा सम्राट था। वह था तो बलशाली लेकिन ऐसा दुर्दिन देखकर रोने लगा। और मृत्यु के पैर पकड़ने लगा। गिड़गिड़ाने लगा। और कहने लगा कि मुझे छोड़ दो।अभी तो मेरी वासनाएं भी पूरी नहीं हुईऔर तुम लेने आ गई। अन्याय मत करो।ये दिन तो ऐसे ही बीत गये बेहोशी में।सौ साल मुझे और मिल जायें। बस। तो अब मैं चूकूँगा नहीं भोग ही लूँगा। सौ साल बाद तुम आ जाना, तुम मुझे तैयार पाओगी। पर मौत ने कहा, किसी को तो ले जाना पड़ेगा। खाली हाथ जाने का कोई उपाय नही है। तू अपने बेटों में से किसी को राज़ी कर ले। सौ बेटे थे ययाति के। सौ साल जी चुका था। सैंकड़ों रानियाँ थी। मौत ने तो इसलिये कहा क्योंकि यह तो तरकीब थी मौत की कि कोई बेटा जाने को कैसे राज़ी होगा। जब बाप सौ साल का मरने को राज़ी नहीं तो बीस पच्चीस बरस का बेटा कैसे राज़ी होगा।जब इसकी वासनायें पूरी नहीं हुर्इं तो चालीस पचास साल केआदमी की वासनाएँ कहाँ पूरी हुई होंगी। मौत की यह तरकीब थी होशियारी थी न कहने का कुशल ढंग था राजनीति थी।
      ययाति ने अपने लड़कों को बुला लिया। बड़े लड़कों ने तो ध्यान ही न दिया वे चुपचाप बैठे रहे। उन्होने तो सिर भी न हिलाया।उन्होने कहा यह बूढ़ा क्या बातें कर रहा है। ये मरना नहीं चाहता हमें मारना चाहता है जब इसकी इच्छाएं पूरी नहीं हुई तो हमारी कहां से पूरी हो जायेंगी। हम तो इससे कम ही जिये हैं। इसने तो सब भोग ही लिया है। ये हटे तो सिहांसन खाली हो तो हम भी थोड़ा भोग सकें। बाप पहले मरे यह तो नैसर्गिक नियम है। बाप के पहले बेटा मरे और वह भी बाप माँगे और कहे कि तू मर जा ऐसे बाप के लिये कौन मरने को राज़ी होगा। बड़े लड़के तो चुप रहे लेकिन एक छोटा लड़का जिसकी उम्र कुल उन्नीस बीस बरस की थी अभी कली खिली भी न थी अभी जवान हो ही रहा था अभी मूँछ की रेखाएंआनी शुरु हुई थी वह उठकर पास आ गया और उसने कहा कि मैं तैयार हूँ। ययाति भी चौंका। वह बेटा उसे बहुत प्यारा था।लेकिन अपने से ज्यादा प्यारा तो बेटा भी नहीं होता।अपनी जान जाती हो तो पति भी प्यारा नहीं, पत्नि भी प्यारी नहीं, बेटा भी प्यारा नहीं।आदमी अपने लिये ही दूसरों से प्रेम करता है। जब मौत का सवाल हो तो तुम अपने को बचाओगे कि बेटे को? ययाति को दुःख तो हुआ लेकिन मज़बूरी थी उसने कहा क्षमाकर।लेकिन मेरा रहना ज़रूरी है। मौत हैरान हुई। मौत ने उस बेटे के कान में कहा नासमझ। तेरा बाप मरने को तैयार नहीं, तू मरने को तैयार है?उस बेटे ने कहा, बाप को न मरते देखकर ही मैं तैयार हो गया। सोचा कि जब सौ साल में भी इच्छाएं पूरी नहीं होती तो मैं भी क्या कर लूँगा।अस्सी साल और गँवाने से क्या फायदा है?अस्सी साल बाद तुम आओगे मृत्यु के देवता। तब अस्सी साल तुम्हारी राह देखने की क्या ज़रूरत है?निपटारा हो ही जाने दो। बाप की इच्छायें पूरी नहीं हुई इससे स्पष्ट है कि इच्छाएं पूरी नहीं होती। नहीं तो मेरे पिता जी के पास क्या कमी थी?हज़ारों रानियां हैं,धन सम्पत्ति है, बड़ा साम्राज्य है,जगत में कीर्ति है,क्या था उसे जो उपलब्ध नहीं था जो भोगने को शेष रह गया हो। लेकिन लगता है भोग का कभी अन्त नहीं होता तुम मुझे ले चलो। अब इसी मूढ़ता में पड़ना नहीं चाहता। मौत अपने वचनानुसार ययाति के बेटे को ले गई। लेकिन कहते हैं कि हर सौ साल बाद मौत आती ययाति गिड़गिड़ाने लगता हर बार मौत ययाति के एक बेटे को ले जाती। अन्त में मौत ने कहा कुछ तो सोचो। तुम्हारी वासनाएं कभी पूरी होगी?तब उसे होश आया यह भी जल्दीआ गया हज़ार ही साल मे आ गया लेकिन तुम(जीव) तो मालूम कितने हज़ार साल से जी रहे हैं पर हर बार मौत आती है और तुम भूल ही जाते हो एक शरीर ले जाती है तुम्हें दूसरा शरीर मिल जाता है तुम उस शरीर में फिर बेहोश हो जाते हो। ययाति ने जाते वक्त एक वचन लिखाआने वाली संतति के लिये कि कितना ही भोगो।भोग भोगने से नहीं जाते भोगों का कोई अन्त नहीं। तृष्णा दुष्पूर है वासना पूरी नहीं होती। वासना का स्वभाव पूरा होना नहीं है।दस हजार हैं तो फिर दस लाख की वासना, फिर वासना दस करोड़ की,दस अरब की वासना क्षितिज की भाँति उतनी आगे बढ़ जाती है जैसे आकाश छूता हुआ दिखाई पड़ता है पृथ्वी को कहीं छूता नहीं बढ़ते जाओ दीखता है यह रहा दो चार मील चलने की बात है कि पहुँच जायेंगे लेकिन कभी नहीं पहुँचते चाहे पृथ्वी के हज़ारों चक्र लगा लें। वह मृग मरीचिका है।

Sunday, January 24, 2016

ज़िन्दगी की धारा भीतर से बाहर की तरफ बहती है


एक सेनापति एक छोटे से गांव से गुज़र रहा था। बड़ा कुशल निशानेबाज़ था। उस जमाने में उस जैसा निशाने बाज़ कोई भी न था। सौ में सौ निशाने उसके लगते थे। गांव से गुज़रते वक्त एक बगीचे की चार दीवारी पर, लकड़ी की चार दीवारी, फेंसिंग को उसने देखा कि उसमें कम से कम डेढ़ सौ गोलियों के निशान हैं, और हर निशान चाक के एक गोल घेरे के ठीक बीच केंद्र पर हैं। सेनापति चकित हो गया। इतना बड़ा निशानेबाज़ इस छोटे गांव में कहां छिपा है? और जो चाक का गोल घेरा है, ठीक उसके केंद्र पर गोली का निशान है। गोली लकड़ी को आर-पार करके निकल गई है। और एकाध मामला नहीं है; डेढ़ सौ निशान हैं। उसे लगा कि कोई मुझसे भी बड़ा निशानेबाज़ पैदा हो गया। पास से निकलते एक राहगीर से उसने पूछा कि,"भाई! यह कौन आदमी है? किसने ये निशान लगाए हैं? किसने ये गोलियां चलार्इं हैं? इसकी मुझे कुछ खबर दो।' मैं इसके दर्शन करना चाहूँगा।' उस ग्रामीण ने कहा कि "ज्यादा चिंता मत करो। गांव का जो चर्मकार है, उसका लड़का है। ज़रा दिमाग उसका खराब है। नट-बोल्ट थोड़े ढीले हैं।' उस सेनापति ने कहा, "मुझे उसके दिमाग की फिक्र नहीं है। जो आदमी डेढ़ सौ निशाने लगा सकता है इस अचूक ढंग से, वर्तुल के ठीक मध्य में, उसके दिमाग की मुझे चिंता नहीं, मेरे लिए वह महानतम निशानेबाज़ है, मैं उसके दर्शन करना चाहता हूँ।' उस ग्रामीण ने कहा कि "थोड़ा समझ लो पहले। वह गोली पहले मार देता है, चाक का निशान बाद में बनाता है।'
     करीब-करीब धर्म के इतिहास में ऐसा ही हुआ है। हम सब गोली पहले मार रहे हैं, चाक के निशान बाद में बना रहे हैं। लेकिन राहगीर को तो यही दिखाई पड़ेगा कि गज़ब हो गया। जिसे पता नहीं, उसे तो दिखाई पड़ेगा कि गज़ब हो गया। ज़िंदगी बाहर से भीतर की तरफ उलटी नहीं चलती है। ज़िन्दगी की धारा भीतर से बाहर की तरफ है; वही सम्यक धारा है, गंगोत्री भीतर है, गंगा बहती है सागर की तरफ। हम सागर से गंगोत्री की तरफ ज़िंदगी को बहाने की कोशिश में लगे रहते हैं।
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Saturday, January 23, 2016

पालतू पक्षी ने राजा की रक्षा की


एक राजा को शिकार करने और पक्षी पालने का बड़ा चाव था। उसने अनेक पक्षी पाल रखे थे।उन पक्षियों में एक छोटा सा अति सुन्दर चकोर भी था,जो राजा को अधिक प्रिय था। उसे वह अपने हाथ पर बिठाये हुए सदैव अपने निकट रखता। जहाँ कहीं भी राजा जाता,यह चकोर भी उसके कन्धे पर सवार हुआ उसके साथ ही जाता। राजा एक बार वन में शिकार खेलने निकला।सामन्त मन्त्री दरबारी आदि भी साथ थे। एक हरिण का पीछा करते हुए मार्ग से भटककर कहीं का कहीं पहुँचा। जब तक सही मार्ग न मिले, साथियों को खोज सकना असम्भव था। इस प्रकार बीहड़ बन में भटकते भटकते राजा और उसका घोड़ा दोनों थकावट से चूर चूर हो गये। इधर भूख-प्यास ने राजा को सताना शुरु किया। उसका घोड़ा भी भूखा-प्यासा हो चुका था। भोजन मिलने की तो जंगल में क्या आशा होती, अलबत्ता जल की खोज आरम्भ हुई। तलाश करते करते एक जगह जगह की चट्टान के पास जल दिखाई दे गया। दो चट्टानो के बीच की दरार से बूँद बूँद जल रिस रहा था। राजा वहीं घोड़े से उतर पड़ा एक वृक्ष से कुछ पत्ते तोड़कर उसने दोना बनाया और उसमें बूंद बूँद गिरते हुए जल को एकत्र करने लगा। जब दोना भर गया और राजा ने उसे उठाकर मुख से लगाना चाहा, तभी उसके कन्धे पर बैठे चकोर ने उड़कर अपना पैर उनमें मारकर दोना लुढ़का दिया। राजा को इस पर क्रोध तो आया,क्योंकि वह बहुत प्यासा था, किन्तु वह चुप रहा। अब उसने पुनः दोने को भरने के लिये झरने के नीचे रख दिया। बड़ी देर में जाकर दोना भर गया। अब जब राजा ने उसे मुख तक ले जाने का संकल्प किया कि फिर एक बार चकोर उड़ा और उसने पूर्ववत् पैर मार दिया। दोना फिर लुढ़क गया। अब तो राजा मारे क्रोध के लाल-पीला हो गया। उसने आव देखा न ताव, झट चकोर को पकड़ा और उसकी गर्दन मरोड़ दी। मृत चकोर को फैंककर राजा ने दोना फिर एक बार झरने के नीचे टिका दिया। उसी समय अचानक उसकी दृष्टि ऊपर चट्टान की दरार कीओर उठ गई। देखता क्या है कि जहाँ से बूँद बूँद जल टपक रहा है,वहीं एक मृत सर्प की देह पड़ी है और जल की बूँदें उसके ऊपर से होकर नीचे आ रहीं हैं। यह देख कर राजा के तो होश ही उड़ गये।वह सोचने लगा कि यह विषाक्त जल यदि मैं पी लेता,तो निश्चय ही जीवित न रह सकता।चकोर तो मेरा सच्चा मित्र और हितैषी था।वह मुझे यह प्राण-घातक जल पीने नहीं देना चाहता था। हाय! मैने बड़ा ही गज़ब किया,जो बेचारे को निरपराध मार डाला।
     परन्तु अब पश्चाताप करने से हो भी क्या सकता था?चकोर तो मारा जा चुका था।राजा ने क्रोधावेश में भरकर जो गलत कदम बिना विचार किये उठाया,उसके परिणाण में उसे एक शुभ चिन्तक साथी और सच्चे मित्र से हाथ धोना पड़ा।अपने प्रिय चकोर के वियोग का दुःख उसे जीवन पर्यन्त सहना पड़ा और अपने कृत्य पर सदा के लिये पश्चाताप करते रहना उसे नसीब हुआ।
     कतिपय बातें, जिन पर हम बिना सोचे-समझे उत्तेजित हो जाते हैं, हमारी भलाई की भी होती है। अतएव जब कभी उत्तेजना का ऐसा क्षण उपस्थित हो, तब हमें थोड़ा सा अपने आप पर नियन्त्रण करके क्रोध के कारण पर विचार करना चाहिये।तथा यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि आवेश मेंआकर हम जो कदम उठाने वाले हैं,उसकापरिणाम क्या होगा? परिणाम पर दृष्टिपात करने से ही क्रोध टल जाता है।तथा जिसनेउत्तेजना के  उस भयानक क्षण को टाल  दिया, वह बाद में ठण्डे मन से विचार करने पर उसमें अपना लाभ ही देखेगा, फिर वह आयु भर पछताने और हाथ मलने से बचा रहेगा।

Thursday, January 21, 2016

अनुचित व्यवहार पर भी प्रभु से क्षमा याचना


     अयोध्या निवासी एक सन्त परमवैष्णव थे। दया-क्षमा और करूणा उन के जीवन के आभूषण थे। एकबार वे नौका द्वारा सरयू नदी को पार करने की इच्छा से घाट पर आये। उस समय नदी बाढ़ पर थी। एक ही नौका थी इसलिये उसमें पहले से हीअनेक यात्री बैठे थे उन में आज के चंचलता और कुटिलता से भरे हुए युग के प्रतिनिधि पाँच-सात व्यक्ति भी विद्यमान थे। सन्त और सन्त के वेष में ऐसों को वैसे ही प्रायः घृणा होती है किसी की खिल्ली उड़ाना उन का सहज स्वभाव था। फिर कोई सन्त उनकी नाव में आ बैठे-यह उनको स्वीकार न था। उन्हीं कुटिल युवकों की ओर से आवाज़ आई""यहाँ स्थान नहीं है-दूसरी नौका से आ जाना'' अनेक प्रकार के कटु शब्द भी कह दिये। सन्त जी असमंजस में पड़ गये।नौका दूसरी कोई थी नहीं।उन्होने नाविक से प्रार्थना की। मल्लाह ने कहा-""एक ओर बैठ जाइये।''
     वे दुष्ट प्रकृति के लोग कुछ कह न सके,और अब लगे उन सन्त जी पर ही कीच उछालने। परन्तु साधू जी शान्त भाव से भगवन्नाम का स्मरण करते रहे। नाव जब जल के बीच पहुँची तो वह शठ मण्डली और भी चंचल हो गई। कोई उन पर पानी उलीचने लगा-किसी ने कंकड़ी दे मारी-एक ने पास में पड़ा नुकीला कील ही उन की खोपड़ी पर फैंक दिया-परिणाम यह हुआ कि सिर से रुधिर बहने लगा। परन्तु सन्त जी उसी शान्ति की मुद्रा मैं बैठे रहे। अत्याचार की मात्रा और बढ़ गई-दूसरे यात्रियों ने उन दुर्जनों को रोका-किन्तु वे कहां मानने वाले थे। भक्तों के अंग-संग श्री भगवान ही तो होते हैं। उनसे भक्त के दुःख को कहां देखा जा सकता है। तत्काल आकाशवाणी हुई-""महात्मन्!आप आज्ञा दें तो इन दुष्टों को क्षण भर में भस्मसात कर दिया जाय।''
     आकाशवाणी के सुनते ही सब के सब निस्तब्ध रह गये अब उन्हें काटो तो खून नहीं। अब तक जो सिंह बने हुए थे उन सबको काठ मार गया। उनकी बोलती बन्द हो गई। परन्तु प्रभु भक्त सन्त जी ने दोनों हाथ जोड़कर परमेश्वर से प्रार्थना की-""हे दयासिन्धो!आप ऐसा कुछ भी न कीजिये-ये अबोध बच्चे हैं।आप ही यदि इनकी अवज्ञाओं को न भुलाएंगे तोऔर कौन ऐसा दयावान है।आपका यदि मुझ पर स्नेह है तो इन्हें घनी घनी क्षमा दे दें। इनको सद्बुद्धि प्रदान करें। ये सुजन बन जायें। आपके श्री चरणारविन्दों में इनकी भी प्रीति हो जावे।'' यह है मानवता। इस जगतीतल पर मनुष्य के जीवन का आदर्श यही होना  चाहिये।

ज्योतिष सिर्फ इतना ही कहता है कि " ऐसा भी संभव हो सकता है'


 एक ज्योतिषी काशी से बारह वर्ष ज्योतिष का अध्ययन करके वापस लौटा है अपने गांव, जब वह अपने गांव लौटा है तो बड़ी पोथियां लाया है ज्योतिष की, बड़ा अध्ययन करके लौटा है और बड़ा निष्णात हो गया है भविष्यवाणी करने में। जब वह अपने गांव के करीब आ रहा है तो नदी की रेत पर उसने देखे हैं कि किसी व्यक्ति के पैरों के चिन्ह बने हैं और पैरों में तो वे चिन्ह हैं जो चक्रवर्ती के होना चाहिए। भरी दोपहरी हैं, साधारण सा गावं है, छोटी सी नदी है, गंदी रेत है, उस पर चक्रवर्ती खुले पैर चला तो इसकी कोई आशा नहीं है।
     वह तो बहुत घबरा गया। उसने कहा अगर चक्रवर्ती एक साधारण गांव में खुली रेत पर नंगे पांव घूमता हो इस भरी दोपहरी में, तो हो गया हल। फिर मेरे पोथे का क्या होगा? मेरे शास्त्र का क्या होगा? उसे तो ऐसा लगा कि अगर यह चक्रवर्ती का पैर ही है और चिन्ह साफ हैं- तो इन पोथियों को इसी नदी में डुबा देना चाहिए और घर पहुंच जाना चाहिए कि मैं गलत शास्त्र पढ़ गया हूं, पर उसने कहा, इसके पहले मैं पता तो लगा लूं, यह आदमी कहां है? तो वह पैरों के चिन्हों के पीछे चल कर जाता है तो एक वृक्ष के नीचे बुद्ध को बैठे पाता है, तो वह बुद्ध को देखता है, तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाता है, चेहरा तो चक्रवर्ती का है, आँखें चक्रवर्ती की हैं, शरीर तो भिखारी का है, भिक्षा पात्र बगल में रखा हुआ है, नंगे पैर है आदमी। तो वह जाकर कहता है कि महाराज, मुझे बहुत मुश्किल में डाल दिया, बारह वर्ष की सारी साधना व्यर्थ हुआ जा रही है। यह आपके पैर में चक्रवर्ती का चिन्ह है और आप हैं भिखारी, तो मैं अपने शास्त्रों को नदी में डुबो दूं? तो महात्मा बुद्ध उसे कहते हैं, शास्त्र को नदी में डुबाने की ज़रुरत नहीं है। मैं चक्रवर्ती हो सकता था, वह मेरी संभावना थी, वह मैने त्याग कर दी। और जब मैं पैदा हुआ था तो ज्योतिषी ने यह कहा था कि यह लड़का या तो चक्रवर्ती होगा या संन्यासी। तो मेरे पिता ने पूछा कि या क्यों लगाते हैं? ज्योतिष में या क्यों लगा रहे हैं आप? तो कहिए कि चक्रवर्ती होगा या संन्यासी। तो उस ज्योतिषी ने कहा कि ज्योतिष सदा भविष्य की संभावनाओं की सूचना है। ज्योतिष कभी भी दो और दो चार जैसा सुनिश्चित नहीं है कि कल ऐसा होगा ही। ज्योतिष सिर्फ इतना कह रहा है कि ऐसा भी हो सकता है, अन्यथा भी हो सकता है।
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Tuesday, January 12, 2016

गीता के श्लोक पर लकीर फेर दी-20.01.2016


    एक सरलह्मदय तपस्वी थी,जो जगन्नाथपुरी में रहता था विधिवत तप साधन काआचरण करता था।उसकी धर्मपत्नी सरल सुघड़ तथा धर्मात्मा थी।अपने पति की सेवा टहल से शेषसमय में वह भी तप साधन मे लगी रहती थी। यह तपस्वी संस्कृति भाषा का अच्छा विद्वान भी था और श्री मद्भगवद्गीता को बहुत मानता था।नित्य-नियम से वह गीताजी का पाठ करता थाऔर गीता उपदेश केअनुसार निष्काम कर्म योग का क्रियात्मिक जीवन बनाना ही उसका ध्येय था। उसने ऐसा नियम बना लिया था गीता के जिन उपदेशों को पढ़ता,उनकाअक्षरशः पालन करने यत्न भी करता। यद्यपि उसके चित से सकाम भावना का समूलनाश अभी नहीं हुआ था, तथापि वह सदैव प्रयत्न यही करता था कि वह सकाम कर्म के स्तर से ऊपर उठकरअपने मन को निष्काम कर्म में स्थिर करे।श्रीमद्भगवद्गीता के नवेंअध्याय के बारहवें श्लोक को पढ़ रहा था जिसमें भगवान नेअपने भक्तोंऔर प्रेमियों के योगक्षेम वहन के उत्तरदायित्व का वचन दिया है किः-      अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनः पर्युपासते।
          तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।
जब वह इसे पढ़कर प्रत्येक शब्द का अक्षरार्थ विचार रहा था। तब शब्द "वहाम्यहम्' पर पहुँचकर वहअटक गयाऔर सोचने लगा कि श्रीभगवान ने जो ऐसा कहा है कि अपने भक्तों के योगक्षेम का भार मैं स्वयं ढोता हूँ तो इसमें अतिश्योक्ति है।अन्यथा प्रभु अपने भक्तों के जीवन सम्बन्धी आवश्यकताओं की सामग्री स्वयं ढोकर तो न लाते होंगे।अलबत्ता इतना अवश्य सम्भव है कि वे किसी न किसी माध्यम से आवश्यक जीवन निर्वाह की सामग्री भक्तों के लिये उन तक पहुँचा देते होंगे। इस प्रकार सोचता हुआ वह तपस्वी बड़ी देर तक शब्दों की इस उलझन में उलझा रहा। बार बार विचार करने पर भी कोई और बात उसकी समझ में न आ सकी और अपना दृष्टिकोण ही उसे सब प्रकार से उचित एवं युक्ति संगत प्रतीत हुआ।तब उसने मनमें कहा कि इस दृष्टिकोण से तो श्लोक में शब्द "वहाम्यहम्' कछ असंगत सा भासता है। ऐसा प्रतीत होता है कि किसी ने बाद में यह शब्द लिख दिया है।असल में इसके स्थान पर शब्द "करोम्यहम्' होना चाहिये।जिसकाअक्षरार्थ है,"'मैं करता हूँअथवा मैं करा देता हूँ।'' बस यही उपयुक्त प्रतीत होता है।अतः इस निर्णय पर पहुँचकर उसने गीता में लिखे शब्द "वहाम्यहम्' को अपनी कलम से काटकर उस के स्थान पर"करोम्यहम्' लिख दिया।अब वह सन्तुष्ट था कि अर्थ स्पष्ट हो गया है।
     इस तपस्वी के रहने का झोंपड़ा गाँव से बाहर कुछ दूरी पर था जीविकोपार्जन उसका थी मधूकरी,जो वह नित्य गाँव में जाकर कुछ घरों से माँगलाता थाऔर उन्हीं भीख के टुकड़ों से पति-पत्नी दोनों का जीवन निर्वाह होता था। प्रभु की माया ने ऐसा खेल रचा कि जिस दिन की यह घटना है अर्थात जिस दिन उसने गीता जी के उपरोक्त श्लोक के शब्दों में संशोधन किया था, उस दिन घोर मूसलाधार वर्षा हुई और वह भी ऐसी कि क्षणमात्र को न थमी। प्रातः से लेकर संध्या तक तपस्वी मधूकरी के लिये घर से न निकल सका। उसदिन पति पत्नी दोनों भूखे रहे।अगले दिन सुबह वर्षा थम गयी और आकाश स्वच्छ था।धूप निकल आयी और तपस्वी अपनी मधूकरी की झोली लेकर भीक्षाटन को घर से निकल पड़ा। अभी उसे घर से गये थोड़ी ही देर हुई थी कि एक बालक उसकी झोंपड़ी पर आया। यह बालक अत्यन्त सुन्दर था और उसका सुडौल शरीर कुन्दन के समान दमक रहा था। किन्तु उसका तेजपुन्ज शरीर सारे का सारा लहुलुहान भी हो रहा था। घर के बाहर से उस बालक ने आवाज़ लगाई, तो तपस्वी की पत्नी बाहर निकल आयी। उस बालक ने अपने हाथों में एक बड़ा सा बर्तन उठा रखा था, जिसमें भांति भांति के भोजन सामग्री भरी थी। तपस्वी की पत्नी को वह बर्तन थमाते हुए उस बालक ने मुधरंजित कोमल स्वर में कहा,''लो!यह प्रसादआपके पति ने भिजवाया है।
     तपस्वी की पत्नी उस बालक केअतिसुन्दर नख-सिख,उसके सुडौल शरीर, समुन्नत तेजोमय भाल तथा बाँकी चितवन को मुग्ध होकर देखती रह गयी।अब उसकी मधुर बोली सुनकर वह और भी विमुग्ध हो उठी। किन्तु इसके साथ ही उसके सारे शरीर को खून से लथपथ देखकर वह अत्यन्त दुःखी और चकित भी हुई। इतने मोहक नखशिख वाले बालक के कोमल तन से लहू टपकता देख उसके नेत्रों मेंअश्रु तैरने लगे। उसके हाथ से बर्तन लेते  हुए तपस्विनी ने पूछा,"" किस निर्दयी  और नृशंस ने तुम्हारी ऐसी दशा बनायी है? वह कौन ऐसा अधम आततायी है, जिसने इतने सुकोमलअंगों को यातना दी है?उत्तर में बालक ने मुस्कराकर उस के पति का नाम लिया।बाल की मुस्कान इतनी मोहक थी कि तपस्विनी का चित पानी पानी हो गया।अपनी मुग्धकारी मुस्कान को चहुँओर बखेरते हुए बालक ने कहा,"'उसी पाषाणह्मदय व्यक्ति ने मुझे तेज़ छुरी से हलाल करने की धृष्टता की है,जो तुम्हारा पति है तथायह तो मेरा भाग्य ही है कि मैं किसी प्रकार उसके पंजे से बच गया हूं। अन्यथा उसने तो मेरा कलेजा चीरडालने में कुछ भी कसर न छोड़ी थी।''यह सब सुनकर तपस्विनी का जी भर आया। इस जानकारी से उसे आश्चर्य भी हो रहा था,क्योंकि वह तोअपने पति को भद्र एवं सरल ह्मदय सज्जन ही समझती थी।बालक कोअपने घर में ले जाकर उसने उसके घाव धोये तथा घाव धोकर पट्टी बाँध दी। वह उसके घाव धोती जाती थी तथा करुणाद्र्र होकर पूछती भी जाती थी किअधिक पीड़ा तो नहीं हो रही है? कर्राहकर बालक कहने लगा,""अजी!बहुत पीड़ा हो रही है।क्या बताऊँ कि तुम्हारे क्रूर पति ने मुझे कितना कलेश पहुँचाया है।''तपस्विनी कोअब भी इसका विश्वास न हो रहा था कि उसके पति ने यह क्रूर एवं जघन्य कर्म किया होगा। इसलिये उसने पुनः कहा,""मेरे पतिदेव तो बड़ेदयालु तथा कोमल स्वभाव के हैं। वे तो एक पिपीलिका को भी कभी नहीं सताते। फिर यह क्योंकर सम्भव हो सकता है कि तुम जैसे प्रियदर्शन सुकुमार तथा मन मुग्धकारी बालक पर वे छुरा चलायें। नही, वह कोई और होगा मेरा जी ही नहीं मानता कि मेरे पति भी कभी ऐसा घृणित कार्य कर सकते हैं।''
बालक ने कहा,""अब तुम्हें विश्वास ही न हो, तो मैं कर भी क्या सकता हूँ। किन्तु मैं तुमसे सच सच ही कह रहा हूँ कि मेरी ऐसी दशा तुम्हारे पति के अतिरिक्त किसी अन्य ने नहीं बनायी। उसआततायी ने बिना मेरे किसी अपराध के और बिना कुछ भी सोचे समझे मेरे जिगर को काट डाला है।अब यहतो वही जाने कि उसने ऐसा क्यों किया।''तपस्विनी को अब भी इससे पूर्ण सन्तुष्टि न हो रही थी तथापि वह यह सोचकर मौन रही कि सम्भव है,उसके पति ने ही इस बालक केप्रति यहनृशंस व्यवहार किया हो। कुछ भी हो आज उनके घर लौटने पर मैं अवश्य पूछूँगी।
    बालक के घाव धोये जाने तथा पट्टी बँध जाने से उसे किंचित सुख मिला। बालक ने अब लौट जाने का संकल्प कियाऔर बोला,""अच्छा! यह प्रसाद रख लो और मैं जाऊं।'' तपस्विनी ने उसे वहीं रुक जाने को कहा,किन्तु वह न माना।बालक के मुख से यह वृतान्त सुनकर तपस्विनी का चित अति विह्वल हो रहा था। वह इसी दुःख में खोयी खोयी बैठी रही और उसे पता न चल सका कि वह बालक कब उठकर चला गया। जब वह सचेत हुई, तब तक वह लुभावनी आकृति अदृश्य हो चुकी थी। कुछक्षण पश्चात भिक्षा की झोली भरे हुए तपस्वी अपनी कुटिया में लौट आया। अपनी पत्नी को इस प्रकार उदास तथा अशान्त देखकर उसने कारण जानने की इच्छा व्यक्त की। उत्तर में पत्नी ने बालक के आने का सब वृत्तान्त ज्यों का त्यों कह सुनाया तथा वहअपने पति पर अप्रसन्न भी हुई कि इतने मोहक तथा निरपराध बालक पर अत्याचार करते तुम्हे तनिक भी दया न आयी। तपस्वी यह सब सुनकर हक्का बक्का सा रह गया। पहले तो कुछ भी उसकी समझ में न आया। किन्तु फिर कल की घटना उसकी स्मृति में घूम गयी, जबकि उसने गीता के एक श्लोक पर कलम की नोक फेरकर उसे काट दिया था।यह सब स्मरण करके उसके नेत्र भर आये और वह अपने किये पर पश्चाताप करने लगा। अब उसे पूर्ण विश्वास हो गया किअपने भक्तों की जीवन सम्बन्धी आवश्यकताओं की सामग्री(योगक्षेम) को भगवान् स्वयं ढोकर भी उनके घरों तक पहुँचा देते हैं, जैसे कि वे उसके घर पहुँचा गये थे।
     एकान्त में जाकर वह प्रभुमूर्ति के सम्मुख घुटनों के बल गिर गया और करुण भाव से रो रोकर प्रार्थना करने लगा,""भगवन्! मुझ अधम का अपराध क्षमा कीजै। मैने बिना जाने- बूझे आपके ह्मदय को घायल किया है। मुझे इसका दण्ड मिलना ही चाहिये।आपकी पवित्र और सच्ची वाणी पर विश्वास न करके मैने अपनी ही दुर्बलता का प्रमाण दिया है। अपनी तुच्छ बुद्धि द्वारा निर्णय देकर मैनेआपके वचन का खण्डन किया। मेरे इसी अपराध के कारण ही आपने मुझे अपने मनोहर दर्शन से भी वंचित रखा। तब भी आपकी इतनी दया क्या कम है कि मेरी भूल को दृष्टि में न रखते हुएआपने स्वयं कष्ट करके मेरे घर में दर्शन दिये और इस दरिद्र झोंपड़ी को पवित्र किया।आपने मुझ पापी का इतना ख्याल किया कि स्वयं यहाँ आकर भोजन सामग्री पहुँचायी। प्रभो दीनबन्धो!मेरी इस अनजानी गलती को क्षमा करके मुझे अपने चरणों मे लगा लीजिये। आपकी दयाऔर उदारता का बदला तो कोई दे ही नहीं सकता। मुझ पर दया करोऔर मेरा सबअपराध क्षमा कर दो।बड़ी देर तक वह इसप्रकार की आत्र्त प्रार्थना करुण ह्मदय से करता रहाऔर रो रोकर प्रभु चरणों को भगोता रहा।इसी अवस्था में रोते रोते वह अचेत होकर मूर्ति के चरणों में गिर पड़ा।जब उसकी चेतना लौटी, तो क्या देखता है कि वही बालक रूप धारी भगवन उसके सिर को अपनी गोद में रखे बड़े स्नेह से सहला रहे हैं।श्री भगवान के मंगलमय दर्शन पाकर तपस्वी का मन आनन्द से भर गया। इसके बाद वह अपने स्थान से उठा और बार बार प्रभु चरणों में सीस झुकाने तथा क्षमा-याचना करने लगा।कुछ क्षण उसे दर्शन देकर तथा उसके सिर पर प्यार का हाथ फेर कर श्री प्रभु अन्तर्धान हो गये। आनन्द तथा उल्लास में भरे तपस्वी ने गीता उठायी और उस पर सब जगह, सब ओर बार बार "वहाम्यहम्' शब्द लिखने लगा।
   इस कथा से भी उसी तथ्य की पुष्टि होती है कि प्रभु के भजन ध्यान तथा सेवा में निमग्न रहने वाले भक्तों का सब प्रकार का उत्तरदायित्व भगवान अपने ऊपर ले लेते हैं। और भक्तों को किसी प्रकार की कमी नहीं आने देते।

मैं खुदा से ही माँग लूँगा-19.01.2016


शहनशाह अकबर के समय में एक फकीर था, जो भीख माँगकर दोनों समय का भोजन पा लेता थाऔर मालिक की याद किया करता था। यों उस फकीर की गुज़रान सन्तोषयुक्त थी। एक दिन पाँव पसारकर किसी मस्जिद में लेटा हुआथा कि मस्जिद के मुल्ला ने उससे कहा,""ऐ फकीर! यह क्या तुम प्रतिदिन द्वार द्वार के टुकड़े माँगकर खाते हो, सुनों, मैं तुम्हें बताऊँ!सम्राट अकबर महान के यहाँ सभी हाजतमंदों और बेनवाओं को मुँह माँगा मिलता है।वहाँ एक बार चले जाओ और इतना ले आओ कि फिर किसी द्वार पर जाने की आवश्यकता नहीं रहेगी। सन्तोषप्रिय फकीर मुल्ला के बहकाने मेंआ गयाऔर अकबर के महल की तरफ चल पड़ा।
     शहनशाह अकबर नमाज़ और रोज़े के बड़े पाबन्द थे।इसी प्रकार वे अन्य सभी धार्मिक क्रियायें भी समयानुसार करते थे।महल के अंदर ही उन्होंने नमाज़ अदा करने के लिये मस्जिद बनवा रखी थी और नियम अनुसार पाँचों वक्त नमाज़ पढ़ा करते। जिस समय यह फकीर महल में दाखिल हुआ,संयोगवश उस समय शहनशाह हुज़रे में थेऔर संध्या समय की नमाज़ अदा कर रहे थे। दरबान ने उसे सवाली जानकर बताया कि वह कुछ देर प्रतीक्षा करे,जब तक की महाबली नमाज़ से फारिग हो लें, तब उसकी प्रार्थना सुनी जायेगी। फकीर ने कहा कि मैं वहीं हुजरे में ही बैठ रहूँगा। दरबान को भला इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी,क्योंकि अकबर के यहाँ फकीरों का बड़ा आदर हुआ करता था। फकीर वहीं बैठा हुआअकबर को नमाज़ अदा करते देखता रहा। अकबर की नमाज़ समाप्त हुई,तो उन्होंने नियानुसार दुआ के लिये हाथ उठाये। फकीर यह
सब ध्यान से देख रहा था। दुआ के उपरन्त अकबर कलमा पढ़कर उठे और मुख फेरते ही उनकी दृष्टि सवाली पर पड़ी। बोले,""कहो फकीर मियाँ। कैसे आये?''
     फकीर ने शिष्टाचारपूर्वक सलाम किया और बोला,""शहनशाह! मैं अपना प्रयोजन तो फिर बताऊँगा। पहले आप यह बताने का कष्ट करें कि अभी अभी नमाज़ के बाद आप हाथ उठाकर क्या कर रहे थे?'' अकबर ने एक अट्टहास किया,""फकीर होकर इतना भी तुम नहीं जानते कि मैं नमाज़ अदा करने के उपरान्त दुआ माँग रहा था।'' ""हाँ! लेकिन किससे और क्या दुआ माँग रहे थे?''फकीर ने बड़े गम्भीर भाव से दूसरा प्रश्न किया।""अरे! खुदा से दुआ माँग रहा था, और किससे माँगता?''शहनशाह के माथे पर बल पड़ गये, ""और अपने ऐश्वर्य तथा साम्राज्य की उन्नति की दुआ माँग रहा था।भला मुझे और क्या माँगना था?''अति सरल भाव से फकीर ने कहा,""बस तो फिर मुझे इज़ाजत दीजिये।मैं चला।'' अकबर ने आगे बढ़कर फकीर की भुजा थाम ली, नहीं फकीर साहिब। आपने अपने आने का प्रयोजन तो प्रकट किया ही नहीं। ऐसे कैसे जा सकते हैं आप?'' फकीर ने कहा,"'मैं आया तो था याचक बनकर,मगर जो स्वयं याचक हो, उससे क्या याचना करना।'' अकबर ने कहा,क्या मतलब?फकीर का कथन पूर्ववत गम्भीर था कहा, ""मतलब यह है शहनशाह!आपने स्वयं कहा है कि अभी अभी आप अपने ऐश्वर्य और साम्राज्य की बढ़ौतरी के लिये खुदा से दुआ माँग रहे थे। अर्थात् आप खुदा के दरबार में याचक बनकर याचना कर रहे थे।'' अकबर ने कहा,""इसमें संशय क्या है, खुदा की रहमत के तुफैल ही तो यह सब ऐश्वर्य है। उससे न मांगे तो और किससे माँगने जायें?'' बस तो फिर मैं भी उसी से माँगूँगा। आपके द्वार पर याचना लेकर आने में मैने गलती की। फकीर ने बड़े साहस के साथ उत्तर दिया। जो स्वयं याचक हो वह किसी को दे भी क्या सकता है? यह कहकर फकीर वहाँ से चलता हुआ। आखिर तो वह ईश्वर विश्वासी फकीर था, इसीलिये अत्यन्त निर्भीक और सन्तोषी भी था।

प्रालब्ध-18.01.2016


सरल प्रकृति का एक लड़का एक दिन किसी मन्दिर में गया। वहाँ एक महात्मा का सतसंग हो रहा था। प्रसंग यह था कि परमात्मा का विधान प्रत्येक प्राणी को उसका प्रारब्ध भोग नियमित रूप से पुहँचा देता है।चाहे वह कहीं भी चला जाये, उसकी प्रारब्ध के भोग उसके पीछे अवश्य वहीं जा पहुंचेंगे। लड़के ने यह बात गाँठ बाँध ली। मन्दिर से बाहर आकर उस सरल बालक ने विचार किया कि इस तथ्य की परीक्षा करनी चाहिये कि प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक प्राणी का भोजन नियति के विधान द्वारा कैसे पहुँचाया जाता है। वह जंगल की ओर निकल गया। वहाँ एक निर्जन स्थान देख कर वह बैठ रहा। उसने मन में कहा, देखें तो मेरे हाथ पाँव द्वारा चेष्टा किये बिना मेरी प्रारब्ध का भोग कौन यहाँ लेकर आता है। यह स्थान एक पर्वतीय गुफा थी, जो आबादी अथवा ग्राम से बहुत दूर थी।मनुष्य तो क्या,किसी पक्षी की छाया भी वहाँ कभी न पड़ी होगी।
     इस शून्य स्थान में लड़के ने आसन जमा लिया। सब ओर एकान्त था,मौन प्रकृति का साम्राज्य।ऐसा सुन्दर सुहावना वातावरण एकान्तप्रिय में परमात्मा का स्मरण होना स्वाभाविक है।इस लड़के को भी यहाँ कोई काम नहीं था। संसार की खटपट के वातावरण से वह बहुत दूर निकल आया था। यहाँ उसके मन में न कोई चिन्ता थी न कल्पना। एकान्तमय सुनसान वातावरण उसे अति सुखद एवं शान्तिप्रद प्रतीत हुआ। सहज ही उसका चित परमात्मा के सुमिरण मेंं रमने लगा। वह परमात्मा के ध्यान में एकाग्रचित होकरअपनी सुध बुध खो बैठा।उस क्षण उसके मुखमण्डल पर सुकुमार भोलापन बरस रहा था और इस एकान्त शान्त स्थान में वह एक बालयोगी सा प्रतीत होने लगा। मौन भाव से बैठा वह परमात्मा का स्मरण करता रहा। प्रातःकाल से बैठे बैठे मध्यान्ह काल हुआ और फिर दिन ढलने लगा।लड़के को भूख-प्यास ने बहुत सताया,किन्तु उसने स्वयं को नियन्त्रण में रखा।इधर उधर जंगल में खाने को फल-मेवे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे तथा पीने को सामने ही नदी का शुद्ध जल बह रहा था,जो कठिनाई से उसके आसन से डेढ़ दो फर्लांग दूर होगा। परन्तु उसने तो आज यह ठान ली थी कि बिना हाथ पाँव हिलाये कौर मुख में अपने आप पहुँचे,तो वह खायेगा,अन्यथा नहीं।इसी प्रकार संध्या होने कोआयी।
    संयोग की बात,ऊँटों की एक पंक्ति उधर से गुज़री।यह एक धनवान व्यापारी का काफिला था और ऊँटों पर उसका माल लदा था, जिसे वह बेचने के लिये कहीं ले जा रहा था। व्यापारी के साथ उसके सेवक तथा अन्य साथी भी थे।इस जंगल में पहुँच कर वे मार्ग से भटक गये थे। दूर दूर तक घनाऔर दुर्गम पर्वतीय बन था। दृष्टि सीमा तक घने वृक्षों तथा झाड़ियों केअतिरिक्त कुछ भी दिखाई न देता था। जनपद अथवा ग्राम का कोसों तक पता नहीं था।इधर रात्रि सिर पर आ रही थी। यह लोग बहुत परेशान थे। इन्हें यह चिन्ता थी कि इस दुर्गम बनखण्ड से वे कैसे पार हों। तथा किसी जनपद तक पहुँचें, जहाँ रात्री बिताने की सुविधा हो। घने जंगलों में बिना सोचे समझे आगे बढ़ने में यह आशंका भी तो रहती है कि आगे जाकर कहीं मार्ग स्र्वथा अवरुद्ध ही न मिले। अतः उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति की खोज थी, जो उन्हें वन से बाहर कर दे। परन्तु इस भीहड़ वनखण्ड में तो एक भी प्राणधारी दिखायी न देता था। क्या करें और किधर जायें?इस असमंजस में यह काफिला उस नदी के तट पर पहुँचा, जिसे ठीक सामने वह पर्वत-गुहा थी,जिसमें वह परमात्मा से ध्यान लगाये आसीन था। नदी- तट पर आकर व्यापारी ने काफिले को रुक जाने का आदेश दिया।उसका विचार था कि नदी के आस पास कहीं कोई जनपद भी अवश्य होगा। जहाँ वे रुके थे,वहां नदी तट पर कुछ खुला स्थान भी था। काफिला थम गया और ऊँट सुस्ताने लगे। व्यापारी भी अपने घोड़े से उतर पड़ा और उनसे अपने साथियों में से दो चार को दौड़ा दिया कि जाकर इधर उधर देख-भाल करे। सम्भव है कोई प्राणी दिखायी दे जाये और वह हमारा मार्गदर्शन कर सके।सौदागर के आदमी चारों ओर घूमने लगे।उनमें से एक उस तरफ ही जा निकला,जहां वह लड़का ध्यानमग्न बैठा था। उसने अपने साथियों को आवाज़ दी उसके साथी भी वहाँ आ गये। उन्होने लड़के को आवाज़ें दी,किन्तु उत्तर न मिला। वह तो अपनी हठ पर अड़ा था, इसलिये कुछ न बोला। तब उन व्यक्तियों ने उसे बहुत हिलाया डुलाया,परन्तु वह पाषाण मूर्तिवत् स्थिर एवं शान्त रहा। व्यापारी ने अपने साथियों से कहा, यह कदाचित कोई तापस है तथा कई दिन का भूखा-प्यासा भी प्रतीत होता है।अतः सर्वप्रथम जाकर नदी से कुछ जल तथा अपने यहाँ से कुछ भोजन सामग्री ले आओ। इसे कुछ खिलाया पिलाया जाये,तो कदाचित यह बोलने योग्य हो सके। तब इसके द्वारा हमें मार्ग का अता पता भी मालूम हो सकेगा।
     भोजनसामग्री लायी गयी।काफिले वालों के पास और कुछ तो न था।थोड़ा सा ऊँटनियों का दूध और कुछ मात्रा शहद की मिल गयी, वही ले आये। किन्तु लड़का अब भी गुमसुम था। उन लोगों ने जब दो चार झटके दिये, तो दम साधे भूमि पर चित लेट गया। दाँत पर दाँत जमाकर उसने अपना मुख बन्द कर लिया था।उन लोगों ने उसका मुख खोलकर खिलाने पिलाने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु सफल न हो सके। लड़का भी अपने हठ का पक्का था।आज वह नियति की परीक्षा ले रहा था कि उसके मुख में ग्रास पहुँचाने का प्रबन्ध नियति किस प्रकार करती है। व्यापारी ने समझा,कदाचित किसी अज्ञात रोग के कारण लड़के का मुख नहीं खुलता, काफिले के साथ एक हकीम भी था।उसे बुलाया गया और उसने यह दशा देखकर सम्मति प्रकट की कि अधिक समय तक भूखा-प्यासा रहने के कारण लड़के की माँस पेशियाँ कठोर हो गयी हैं, इसी कारण मुख नहीं खुल रहा।किन्तु जब तक दूध के दो घूंट इसके गले से न उतरेंगे, इसकी चेतना लौट नहीं सकेगी। मुख न खुलने की दशा में हकीम के संकेत पर एक पत्थर लाया गया और हकीम ने पत्थर मारकर उसके सामने के दो दाँत तोड़ दिये।अब लड़के  के गले में दूध और शहद टपकाया गया। ज्यों ही दूध और शहद उसके गले में पहुँचा कि लड़का ठहाका मारकर हँसा और उठकर सीधा हो बैठा। व्यापारी तथा उसके साथियों द्वारा पूछे जाने पर जब लड़के ने अपना वृत्तान्त सुनाया, तो वह लोग भी खूब हँसे और उसकी अनोखी युक्ति की सराहना करते हुए बोले,""खूब!मनुष्य अपने कर्तव्य से गाफिल हो तो हो,किन्तु परमात्मा अपने कर्तव्य से गाफिल नहीं। वह प्रत्येक प्राणी कोप्रत्येक अवस्था में उसका प्रारब्ध-भोग पहुँचा देता है। यहाँ तक कि वह निर्जन एकान्त बन में भी भोजन का प्रबन्ध करता है तथा जब कोई न ग्रहण करना चाहे, तो उसे दाँत तोड़कर भी खिलाता है।'' तदोपरान्त लड़के को भरपेट भोजन कराया गया।उसने उन लोगों का मार्गनिर्देशन किया तथा उनके साथ साथ वह भी ग्राम को लौट आया।नियति की परीक्षा वह कर चुका था।उसके न चाहने पर भी नियति ने उसका भाग उसे जंगल में पहुँचा दिया था। इससे सिद्ध है कि प्रत्येक प्राणधारी को उसका प्रारब्ध प्रत्येक अवस्था में प्राप्त होकर ही रहता है। अतएव शारीरिक निर्वाह हेतु चिन्ता करना व्यर्थ है।

ढपोर शंख-17.01.2016


     एक आदमी ने परमात्मा की बड़ी पूजा-प्रार्थना की। परमात्मा प्रसन्न हुआ।और जिस शंख को बजाकर वह आदमी पूजा करता था, परमात्मा ने कहा,अब यह शंख तेरे लिए वरदान है। तू इसे सम्हाल कर रख।और तुझे जो भी इससे मांगना हो,मांग लेना,वह तुझे मिल जाएगा।वह आदमीघर आ गया। पहले तो बड़ा उत्तेजित रहा। घर आते ही द्वार दरवाज़े बंद करके उसने शंख से कहा,कि एक महल मिल जाए,महल मिल गया।हीरे बरस जाएं घर में,हीरे बरस गए। एक सुन्दर स्त्री आ जाए,सुन्दर स्त्री आ गई। धीरे-धीरे,जब सभी होने लगा,तो बड़ा निराश हो गया। कुछ बचा ही नहीं करने को।आशा करने को नहीं बचा।वह जो आशा सेआकाश टंगा था, बिलकुल गिर गया,ऐसा लगा। अब जो कहे,वह हो जाता है। बड़ी मुश्किल में पड़ गया,आदमी आशा में जीने वाला था। सत्य में तो जी नहीं सकता था।अब यह जो शंख था, यह हर चीज़ को सत्य बना देता था।सपने को भी सत्य बना देता था।वह बड़ी मुश्किल में पड़ गया। बड़ी ऊब आने लगी। सबसे सुन्दर स्त्री भी ऊब देने लगी। हीरे-जवाहरात पड़े रहते। कौन सम्हाले?क्या करे? महल बड़ा था,सब कुछ था। जो चाहता, सब उसी वक्त हो जाता।
     एक दिन एक सन्यासी घर में मेहमान हुआ। रात उस संन्यासी ने कहा, कि मेरे पास एक शंख है। यह शंख बड़ा अद्भुत है। इससे तुम मांगो दस हज़ार,यह अद्भुत फौरन कहता है, दस हज़ार क्या करोगे,बीस हज़ार ले लो। यह बड़ा अद्भुत शंख है। वह आदमी बड़ा उत्सुक हुआ इस शंख में। क्योंकि उसकी तो आशा मर गई थी। वह जो शंख उसके पास था,यथार्थ था। वह हर चीज़ को सत्य बना देता। उसकी आशा मर गई थी। उसने कहा, शंख एक मेरे पास भी है, जिससे मैं बड़ा ऊब गया हूँ। ऐसा करो, हम बदल लें। शंख बदल लिए गए।
     सन्यासी तो शंख लेकर चलता बना। इसने अपना नया शंख रखा, फिर उसे बड़े उत्साह से कहा, दस करोड़ रुपये दे दे। उसने कहा, दस करोड़ में क्या होगा,बीस करोड़ ले ले। वह बड़ा प्रसन्न हुआ, कि यह है शंख तो। उसने कहा, अच्छा बीस करोड़ दे दे। उसने कहा, बीस करोड़ में क्या होगा?चालीस करोड़ ले ले। वह महाशंख था। वह सिर्फ बोलता ही था। तुम जितना करो, उसका दुगुना करके बोलता था। थोड़ी देर में तो उसने छाती पीट ली, कि यह तो मारे गए। यह शंख देता तो कुछ भी नहीं है। वह कहता, पचास मंजिल का मकान, वह कहता, क्या करोगे? सौ मंज़िल का मकान ले लो। तुम कहो सौ,वह कहता है दो सौ। वह शंख आशा का शंख था,कामना का,तृष्णा का।तृष्णा दूष्पूर है। वह कभी मरती नहीं। तुम जो मांगो, उससे दुगुना सपना दिखाती है। वह कहता, एक स्वर्ग? दो स्वर्ग ले लो। मगर देना-लेना कुछ भी नहीं, सिर्फ कोरी बातचीत थी। छाती पीटता, लेकिन अब देर हो चुकी थी।
   तुमने भी-सभी ने,जीवन के यथार्थ को छोड़कर आशा का शंख पकड़ लिया है। जीवन का यथार्थ तो देने को तैयार है वह सब, जिससे तुम्हारी तृप्ति हो सकती है, लेकिन तुम्हारी आशा मानने को राज़ी नहीं है। और ज्यादा-और ज्यादा।आशा का अर्थ है और-और-और। जितना हो, उससे ज्यादा। जो हो,उससे ज्यादा। कुछ भी मिल जाए, आशा तृप्त नहीं होती। आशा अतृप्ति का सूत्र है। आशा को छोड़ दोगे तभी जीवन का सत्य पाओगे।अर्थात भविष्य की चिंता छोड़ो वर्तमान प्रयाप्त है,जो तुम्हारे पास नहीं है, उसकी फिक्र मत करो। जो तुम्हारे पास है,वह ज़रूरत से ज्यादा है, ज़रा उसे भोगो। सपने मत फैलाओ सत्य काफी है।

सन्तोष धन 16.01.2016


      किसी शहर में एक सेठ जी रहते थे, जिनका नाम आशाराम था। उनके पास बहुत से मकान थे और बहुत-सा धन था। सोने चाँदी की भी उनके यहाँ कोई कमी न थी। परन्तु फिर भी वे और अधिक धन जमा
करना चाहते थे। उन्हें अपने नाती-पोतों तक की चिंता थी।एक दिन उस शहर के मन्दिर में एक सन्त आकर ठहरे। उनके विषय में ऐसा प्रसिद्ध था कि वे सबकी इच्छा पूरी कर देते हैं।आशाराम को भी उन सन्त जी के आने का समाचार मिला। उनके मन में आशा जगी कि शायद सन्त उनकी इच्छा पूरी कर देंगे। दूसरे ही दिन आशाराम पैदल चलकर सन्त जी की शरण में पहुँचे और उन्हें प्रणाम करके एक ओर बैठ गए। सन्त जी ने बड़े प्रेम से उनसे बातचीत की। वे समझ गए कि आशाराम को किस चीज़ की ज़रूरत है।वे बोले-आपकी इच्छाअवश्य पूरी हो जायेगी।
यह सुनकर सेठ आसाराम बड़े प्रसन्न हुए। तभी सन्त जी ने पुनः कहा- परन्तु इसके लिए एक शर्त है वह आपको पूरी करनी पड़ेगी। शर्त की बात सुनकर आशाराम मन में बहुत घबराये। उन्होंने सोचा कि सन्त जी कहीं रूपया पैसा न माँग बैठें।पर उन्हें चूँकिअपनी इच्छा पूरी करनी थी, इसलिये हिम्मत करके बोले- शर्त बताइये महाराज! मैं उसे ज़रूर पूरी करूँगा। सन्त जी ने कहा-आपकी कोठी के पास ही एक गरीब परिवार रहता है। परिवार में केवल दो प्राणी हैं-माँऔर बेटी।आप उन्हें कल के भोजन के लिए सामान दे आइए।आशाराम के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी। वह सोचने लगे-अब मेरी इच्छा अवश्य पूरी हो जायेगी। वह शीघ्र ही घर पहुँचे और भोजन का सामान लेकर उस गरीब परिवार के पास गए।वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि किवाड़ खुले हैंऔर माँ-बेटी काम में लगी हुई हैं।किसी ने भीआशाराम कि ओर ध्यान नहीं दिया।आशाराम कुछ देर खड़े रहे,फिर बोले-मैं तुम्हारे लिए खाने का सामान लाया हूँ। माँ ने कहा-बेटा!आज का खाना तो हमारे पास है,इसलिये हम इसे नहीं लेंगे। माँ! भोजन की आवश्यकता तो आपको कल भी होगी।आप इसे कल के लिए ही रख लें।""हम कल की चिंता नहीं करते। हमारी चिंता भगवान करते हैं। उनपर हमारा पूरा भरोसा है।''मां ने उत्तर दिया। ऐसा कहकर वह फिर काम में लग गई।
     मां की बात सुनकर आशाराम खड़े रह गए। वे विचार करने लगे। धीरे धीरे उनकी समझ में बात आ गई। उन्होंने सोचा कि यह परिवार गरीब अवश्य है, लेकिन है बहुत सन्तुष्ट इसे कल की कोई चिंता नहीं। एक मैं हूँ जो नाती-पोतों की चिन्ता कर रहा हूँ।आशाराम घर नहीं गए। वे सीधे सन्त जी के पास पहुँचेऔर उन्हें प्रणाम किया। सन्त जी ने पूछा -उस गरीब परिवार को खाने का सामान दे आए? आशाराम ने कहा-महाराज!आपने मेरी आँखें खोल दीं।सचमुच सन्तोष ही सबसे बड़ा धन है। दुनियाँ में सन्तोष ही सबसे बड़ा सुख है। सन्त जी ने हँसकर कहा-जिस इच्छा से तुम यहाँ आए थे,तुम्हारी वह इच्छा पूर्ण हो गई।आशाराम ने अपना सारा धन परोपकार एवं परमार्थ में लगा दिया। अब वे बड़े प्रसन्न और सुखी थे।

Friday, January 8, 2016

15.01.2016 मैत्री का महान सूत्र शिष्टव्यवहार


कुछ व्यक्तियों ने लिंकन से कहा, आपके शत्रु बहुत हैं। अभी आप सत्ता में हैं। उनको समाप्त क्यों नहीं कर देते? लिंकन ने कहा, ""उन्हें समाप्त कर रहा हूँ।'' लोगों ने कहा, अभी तक किसी को जेल में नहीं डाला, फाँसी नहीं दी, देश से नहीं निकाला। फिर कैसे समाप्त कर रहे हैं? लिंकन बोले, शिष्टव्यवहार से सबको जीत रहा हूँ। कुछ ही समय में वे मेरे मित्र बन जाएंगे। फिर कोई शत्रु नहीं रहेगा। सब शत्रु समाप्त हो जाएंगे।
     यह मैत्री का महान सूत्र है। इसके समक्ष शत्रु कोई रहता ही नहीं। मैत्री की भावना जागने पर अनेक समस्याएं समाहित हो जाती हैं। प्रतिदिन हमारे मन पर अनेक मैल जमा होते जा रहे हैं। उनमें सबसे क्लिष्ट मैल है शत्रुता का, द्वेष का। इस दुनियाँ का यह अचल नियम है कि आदमी जैसा चाहता है वैसा होता नहीं है। इस संसार में रूचि और चिन्तन का भेद है, व्यवहार और व्यवस्था का भेद है, रहन-सहन और खान-पान का भेद है, रीति रिवाजों का भेद है, ये सब भेद न रहें यह कभी सम्भव नहीं है। रूचि की भिन्नता है तब भेद समाप्त नहीं हो सकते। इन भेदों के कारण हमारे मन में शत्रुता और द्वेष का भाव पनपता है, यह अवांछनीय है। भगवान ने कहा, दूसरे के साथ बुरा व्यवहार करने में यह देखो कि तुम्हारा स्वयं का अहित हो रहा है। दूसरे का अहित हो या नहीं, यह निश्चित नहीं है, किन्तु तुम्हारा अहित निश्चित है, उसमें कोई विकल्प नहीं है। दूसरे के प्रति तुम्हारे मन में बुरा विचार आया, चाहे उसका पता किसी को न लगे, पर उसका अंकन तुम्हारे मस्तिष्कीय कोशों में जो जाएगा, उसका बुरा परिणाम तुम्हें अवश्य ही भोगना पड़ेगा। दूसरे का अनिष्ट करने में स्वयं का अनिष्ट है। जो इस सूत्र को पकड़ लेता है वह कभी दूसरे का अनिष्ट नहीं कर सकता। मैं दूसरे का अनिष्ट कर रहा हूँ यह सोचना मूच्र्छा है। वह नहीं जानता कि पर्दे के पीछे क्या हो रहा है। भीतर क्या हो रहा है? जिसके मन में मैत्री की भावना का जागरण होता है, वह कभी किसी का अहित नहीं कर सकता।

14.01.2016 महाराणा रणजीत सिंह को पत्थर लगा


     एक प्रसिद्ध घटना है। महाराजा रणजीत सिंह कहीं घूमने जा रहे थे। अचानक किसी ओर से एक पत्थर आकर उनके सिर में लगा और रक्त बहने लगा। उनके सैनिक एक बुढ़िया को पकड़कर लाये। उसी ने वह पत्थर फैंका था। रणजीत सिंह के पूछने पर बूढिया काँपती हुई बोली। अन्नदाता, मैने पेड़ से फल तोड़ने के लिए पत्थर फेंका, मगर न जाने कैसे वह आपको लग गया। मुझसे अपराध हुआ, मुझे दण्ड दीजिये। रणजीत सिंह ने बुढ़िया को छोड़ने का आदेश दिया और उसे धन देते हुए कहा, पत्थर मारने से जब निर्जीव वृक्ष फल देता है तो मैं प्रजापालक होकर तुम्हें दण्ड कैसे दे सकता हूँ? इस सहनशीलता और क्षमादान से उनकी महानता  प्रकाशित हो उठी।
     एक आदमी चोरी में सफल हो जाता है, पर चोरी की सफलता में उसकी आत्मा टूट जाती है, और नष्ट हो जाती है। बाहर सफलता दिखाई पड़ती है भीतर विफलता हो गई। सस्ते में कीमती चीज़ बेच दी। उसकी हालत ऐसी है, जैसे किसी पर क्रोध में आ गया और पास का हीरा जोर से फेंक कर मार दिया पत्थर समझकर, सफल तो हो गया चोट पहुँचाने में, लेकिन जो खो दिया चोट पहुँचाने में उसका उसे पता ही नहीं है। बुराई में आदमी जब सफल होता है तो भीतर टूट जाता है, नष्ट हो जाता है।और जो वह चुका रहा है वह बहुत ज्यादा है जो मिल रहा है वह कुछ भी नहीं है। इससे उल्टी घटना भी घटती है, भलाई में जब कोई आदमी विफल हो जाता है तो भी सफल होता है, क्योंकि भलाई में विफल हो जाना भी गौरवपूर्ण है। भलाई करने की कोशिश की, यह भी क्या कम है? और भलाई करके विफल होने की हिम्मत की, यह क्या कम है?  और भलाई में विफल होकर भी, फिर भलाई ज़ारी रखी निश्चित भीतर आत्मा निर्मित होती चली जायेगी। आत्मा एक गहन अनुभव है, धैर्य का, प्रतीक्षा का, साहस का, श्रम का और भरोसे का।

13.01.2016 सन्त बायज़ीद को तम्बूरा मारा


सन्त बायजीद से भी एक व्यक्ति जो कि संगीतज्ञ था, बड़ी ईष्र्या करता था और आते-जाते हुये उन्हें अकारण ही अपशब्द कहा करता था, परन्तु वे उसकी बातों का तनिक भी बुरा न मानते और हंसते हुये निकल जाते, जिस से वह व्यक्ति और भी अधिक चिढ़ जाता। एक दिन उस व्यक्ति का किसी अन्य व्यक्ति से झगड़ा हो गया था और वह क्रोध में भरा हुआ बैठा था कि अकस्मात् सन्त बायजीद उधर आ निकले। उस व्यक्ति ने उन्हें पहले तो गालियाँ दीं और फिर क्रोध में तंबूरा उनके सिर पर दे मारा। बायजीद के सिर से रक्त बहने लगा, परन्तु वे बिना कुछ कहे आगे बढ़ गये।
     दूसरे दिन सन्त बायजीद ने अपने एक शिष्य को बुलाया और उसे कुछ रुपये और मिठाई का थाल देते हुए उस व्यक्ति का पता बतलाया और कहा-उसके पास जाकर मेरी ओर से कहना कि बायजीद के कारण कल आपको बड़ा कष्ट हुआ। आपका तंबूरा भी टूट गया। मुझे इसका खेद है। कृपया तंबूरे का मुल्य और मिठाई का यह थाल स्वीकार कीजिये। शिष्य ने वैसा ही किया। बायजीद के सद्व्यवहार का उस व्यक्ति पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। उसे बायजीद के प्रति किये गये अपने दुव्र्यवहार पर बड़ी ग्लानि हुई। वह तुरन्त सन्त बायजीद के पास गया और रोते हुये उनके चरणों पर गिर पड़ा तथा अपने अपराधों के लिये क्षमा मांगने लगा। उस दिन से उसके जीवन में परिवर्तन हो गया। वह सन्तों का श्रद्धालु बन गया।
     हमारा कर्तव्य है कि उपरोक्त कथाओं से शिक्षा ग्रहण करें और उनसे प्रेरणा लेकर क्षमा, करुणा, दया, अक्रोध, नम्रता, दीनता तथा प्रेम आदि
सद्गुणों को ह्मदय में धारण करें। तभी हम सच्चे अर्थों में गुरुमुख बन सकते हैं और सतगुरुदेव दातादयाल जी के कृपा पात्र बनकर जीवन सफल कर सकते हैं।

12.01.2016 सन्त तुकाराम जी


     सन्त तुकाराम जी के मुखमंडल पर हर समय शान्ति बरसती रहती थी। उनका चित्त हर समय प्रभु के ध्यान-सुमिरण में ही लगा रहता था। माता-पिता परलोक सिधार चुके थे और बड़े भ्राता घर-बार छोड़कर न जाने कहां चले गये थे, अतएव भाई-बहनों और पत्नी के अतिरिक्त बड़े भाई का परिवार के पालन पोषण का भार भी उनके ही कन्धों पर था। कमाई का साधन थोड़ी सी खेती बाड़ी थी, जिससे परिवार का निर्वाह बड़ी कठिनाता से होता था। सन्त तुकाराम जी प्रभु की मौज में प्रसन्न रहते हुये सन्तोषी जीवन व्यतीत करते और हर समय नाम की मस्ती में मस्त रहते। सन्तों के सभी लक्षण उनमें विद्यमान थे। किन्तु उनकी पत्नी अत्यन्त क्रोधी स्वभाव की थी। वह बात-बात पर तुकाराम जी से झगड़ा करती, परन्तु वे हँसकर बात टाल जाते।
     एक बार का वृतान्त है-सन्त तुकाराम जी ने अपने खेत से गन्ने काटे, उनका गट्ठर बाँधकर सिर पर लादा और बाज़ार की ओर चल दिये ताकि गन्ने बेचकर अनाज आदि खरीद करें। किन्तु मार्ग में गन्ने लेने के लिए बच्चे उनके पीछे पड़ गए। सन्त तुकाराम जी आम संसारी तो थे नहीं, वे तो थे सन्त। बच्चों के आग्रह को कैसे अस्वीकार करते। परिणाम यह हुआ कि गन्ने बच्चों में बँट गये। केवल एक गन्ना सन्त तुकाराम जी के पास शेष रह गया। वे उसे लेकर घर की ओर चल दिये। सन्त तुकाराम जी एक गन्ना लेकर घर पहुँचे, पत्नि को सम्पूर्ण वृतान्त पहले ही ज्ञात हो चुका था और वह क्रोध में भरी बैठी थी। तुकाराम जी ने जैसे ही गन्ना उसके हाथ में पकड़ाया, क्रोध में उसने वही गन्ना उनकी पीठ पर दे मारा गन्ना टूट गया, उसके दो टकड़े हो गये। सन्त तुकारम जी मुस्कराते हुये बोले-मैं सोच ही रहा था कि गन्ने के दो टुकड़े करके एक स्वयं लूँ और एक तुम्हें दूँ, परन्तु तुम तो समझदार हो जो बिना कहे ही तुमने इसके दो टुकड़े कर दिये। ये शब्द सुनते ही उनकी पत्नी का क्रोध पानी की तरह बह गया। सन्त तुकाराम जी के चरणों में गिरकर क्षमा तो उसने मांगी ही, उस दिन से उसके व्यवहार में आमूल परिवर्तन हो गया। वह भी विनम्र बन गई।           

11.01.16 मुर्गा बाँग देता हो तो सूरज निकलता है


छिपकली के सम्बन्ध में सुना हो, कि छिपकलियों में कहीं कोई विवाह था और एक महल की छिपकली को भी निमंत्रण मिला। निश्चित ही सबसे पहले मिला, क्योंकि वह महल में रहती थी। उसने कहा, मैं आ न सकूंगी। क्योंकि अगर मैं आ गई तो छप्पर गिर जाएगा महल का। मैं ही तो सम्हाले रहती हूँ। छिपकली सोचती है, कि महल के छप्पर को सम्हाले हुए है। अगर चली गई, महल गिर जाएगा।
     तुमने उस बूढ़ी की कहानी सुनी है, जो सोचती थी कि उसका मुर्गा बांग देता है, इसलिए सूरज उगता है। उसका तर्क भी ठीक था। क्योंकि ऐसा कभी न हुआ था। जब भी मुर्गा बांग देता तभी सूरज उगता था। गांव के लोग हँसते थे, कि बूढ़ी तू पागल हो गई है। एक दिन वह नाराज़ होकर अपने मुर्गे को लेकर दूसरे गांव चली गई और उसने कहा, कि अब रोओगे, अब भटकोगे। अब  खोजोगे मुझे और तड़पोगे, पछताओगे, कि क्या गंवा दिया। अब कभी सूरज न उगेगा। मुर्गा मैं लिए जा रही हूँ। और दूसरे गांव में मुर्गे ने बांग दी, तब सूरज उगा। उसने कहा, अब रो रहे होंगे नासमझ! सूरज यहां निकला है। जहां मुर्गा है, वहां सूरज है। तात्पर्य ये कि आदमी समझता है मैं ही सब कुछ कर रहा हूँ लेकिन ये सब निर्रथक धारणा है।

10.01.2016 गरीबी मेरी ज़रूरत है


एक यहूदी फकीर हुआ। झुसिया। बहुत गरीब आदमी था। उससे ज्यादा गरीब आदमी नहीं था कोई। और गांव का राजा एक दिन सुबह-सुबह घोड़े पर निकला था। वह अकसर इस झुसिया को देखता था झाड़ के नीचे बैठा। सर्दी हो तो कंपता रहता, कपड़े उस पे ठीक न थे। आग मिल जाती थी, वही बहुत था। लेकिन रोज़ सुबह वह देखता था कि वह प्रार्थना करता है। तो एक दिन राजा रुक गया। कि यह प्रार्थना क्या करता है। वह झुसिया कह रहा था परमात्मा से कि तेरा बड़ा अनुग्रह है। तू मेरी सब ज़रूरतों की फिक्र रखता है, सब ज़रूरतें पूरी कर देता है। राजा से बरदाश्त न हुआ, वह रुका। जब प्रार्थना पूरी हो गई, उसने कहा, ""झुसिया! झूठ बोलते तो शर्म आनी चाहिए। साधू को झूठ नहीं बोलना चाहिए। यह सरासर झूठ है। और तू परमात्मा से ही झूठ बोल रहा है। सर्दी है, लकड़ी नहीं जलाने को, कपड़ा नहीं पहनने को, तन तेरा कंप रहा है, रोटी मुश्किल से मिलती है। छप्पर है नहीं तेरे पास, झाड़ के नीचे जीता है। यह गरीबी! और परमात्मा से कह रहा है कि सब ज़रूरतें तू मेरी पूरी करता है।'' झुसिया हँसने लगा। उसने कहा, ""गरीबी मेरी ज़रूरत है।'' यह जो आदमी है, इसके लिए  मृत्यु  उल्टी हो के राम हो जायेगी। गरीबी मेरी जरूरत है। झुसिया ने कहा। यह वचन बड़ा अदभुत है। क्योंकि कुछ चीजें हैं जो गरीबी में ही विकसित होती है। अगर तुम उन्हें देख पाओ तो गरीबी एक ज़रूरत है। कुछ चीजें हैं जो अमीरी में मर जाती हैं अगर तुम उन्हें देख पाओ तो अमीरी ज़रूरत नहीं है। कुछ चीज़ें हैं जो अमीरी में विकसित होती हैं, अगर तुम उन्हें देख पाओ तो अमीरी एक ज़रूरत है। तुम्हारे देखने पे सब निर्भर है। झुसिया ने कहा, गरीबी मेरी ज़रूरत है अब इसकी मुझे ज़रूरत है इसलिए वह मुझे गरीब बनाये हुए हैं।

शरणागति (स्टीमर के साथ बँधी नाव जल्दी पहुँचती है)

09.01.2016

     गंगा का निर्मल तट था। कुछ एक जिज्ञासु जन एक सिद्ध महापुरुष के समीप बैठे जीवन चर्चा करते थे। एक भक्त ने सहसा प्रश्न किया,""ऐ सच्चे साहिब! आप दया करके हमें यह समझाईये कि गुरु की शरण लेने से विशेष लाभ क्या होता है?'' गुरुदेव ने सामने बहती हुई विशाल नदी की ओर इशारा करते हुए पूछा, "'देखो नागेश! महानदी में वह क्या खड़ा है?'' नागेश ने नम्रता पूर्वक उत्तर दिया, ""भगवन्! वह स्टीमर है, जो भाप से चलता है।'' गुरु जी ने आगे पूछा, ""उस स्टीमर के दायें बायें क्या है?'' नागेश ने कहा, ""वे तो नौकायें खड़ी हैं। ""अच्छा नागेश! अब यह बताओ कि स्टीमर वर्दवान तक जो यहाँ से साठ मील दूर है, कितनी देर में पहुँचा देगा?'' ""कोई पाँच एक घण्टे में पहुँचायेगा प्रभो।'' विनम्र स्वर में नागेश ने प्रार्थना की। गुरु जी ने कहा, ""बहुत अच्छा। यदि हम नाव से वर्दवान जाना चाहें तो वह हमें कितने समय में लक्ष्य तक ले जायेगी?'' ""जी महाराज! अठारह घण्टों में।'' उत्तर मिला।
     तब बड़ी गम्भीर मुद्रा में श्री गुरुदेव ने दूसरे शिष्य राजेश से प्रश्न किया, ""वत्स! अगर पन्द्रह-बीस यात्रियों को सवार कराके उस स्टीमर के साथ ही बाँध दी जाये तो बताओ वह नैय्या कितना समय लेगी वर्दवान तक? राजेश बड़े विनय भाव से बोला,"'प्रभो! उस नाव को भी उतने ही घण्टे पहुँचने में लगेंगे, जितने स्टीमर को लगते हैं। क्योंकि अब नाव और स्टीमर में कोई गति और काल का अन्तर थोड़े ही रह जायेगा।'' गुरु जी ने समझाना शुरु किया, "'शरणागत पुरुष की भी ऐसी ही अवस्था होती है। एक साधक जो अपने बल पर पूजा-पाठ, जप-तप, सन्ध्या वन्दन, नित्य-नियम आदिक करता है, उसे पग पग पर अपने डिग जाने का भय रहेगा। उसकी अपने मन से आरम्भ की हुई साधना पर कोई विश्वास नही हो सकता। एक पल में वह तोला है, तो दूसरा क्षण में वह माशा भी हो सकती है। क्योंकि उसकी सारी तपस्या का आधार सुनी-सुनाई बातों पर है। हाँ यदि उसने किसी पूर्ण-सिद्ध सत्पुरुष के द्वार पर जाकर उनसे नम्रतापूर्वक प्रार्थना करके दीक्षा ले ली हो और फिर चले उनके बताये हुये सन्मार्ग पर, तो उसकी सफलता में सन्देह नहीं रह सकता। बशर्ते कि वह उन गुरुदेव के पवित्र वचनों का पाबन्द हो। नियमपूर्वक भजन-अभ्यास किया करता हो, और उसकी पूर्ण निष्ठा उन्हीं में हो।'' अपने आपा को उनके श्री चरणों पर न्यौछावर कर दे। आठों पहर उनकी प्रसन्नता के निमित्त शुभ कर्म करे। इस प्रकार जब वह भक्त अपने इष्टदेव की श्री कृपा का पात्र बन गया, तब तो क्या कहने। उस पर बड़ी अपार अनुकम्पा हो गई। उसके योग और क्षेम का भार स्वयं इष्टदेव अपने ऊपर ले लेते हैं। उसे न किसी अप्राप्त वस्तु को पाने की आकाँक्षा रहती है और न ही प्राप्त वस्तु के संरक्षण की चिन्ता। सन्त जनों के आँचल में रहकर जो अपनी जीवन यात्रा को चलाते हैं, उन गुरुमुख जीवों का योग-क्षेम अपने आप ही होता रहता है।

जहाँ दुनियां का अन्त वहां सत्य


सूफियों की एक पुरानी कथा है, कि एक फकीर सत्य की खोज में था उसने अपने गुरु से पूछा, कि सत्य कहाँ मिलेगा? उसके गुरु ने कहा, सत्य? सत्य वहाँ मिलेगा, जहाँ दुनियाँ का अन्त होता है। तो उस दिन से वह फकीर दुनियाँ का अन्त खोजने निकल गया। कहानी बड़ी मधुर है। वर्षों चलने के  बाद, भटकने के बाद, आखिर उस जगह पहुँच गया, जहाँ आखिरी गाँव समाप्त हो जाता था। और उसने गाँव के लोगों से पूछा कि दुनियाँ का अन्त कितनी दूर है? उन्होने कहा, ज्यादा दूर नहीं है बस यह आखिरी गाँव है। थोड़ी ही दूर जाकर वह पत्थर लगा है, जिस पर लिखा है, यहाँ दुनियाँ समाप्त होती है। मगर उधर जाओ मत।
     वह फकीर हँसा। उसने कहा, हम उसी की तो खोज में निकले हैं। लोगों ने कहा, वहाँ बहुत भयभीत हो जाओगे। जहाँ दुनियाँ अन्त होती है, उस गड्ढों को तुम देख न सकोगे। मगर फकीर तो उसी की खोज में था, सारा जीवन गँवा दिया था। उसने कहा, हम तो उसी की खोज में हैं और गुरु ने कहा है जब तक दुनियां के अन्त को न पा लोगे, तब तक सत्य न मिलेगा। तो जाना ही पड़ेगा। कहते हैं, फकीर गया। गाँव के लोगों की उस ने सुनी नहीं। वह उस जगह पहुँच गया जहाँ आखिरी तख्ती लगी थी, कि यहाँ दुनियाँ समाप्त होती है। उसने एक आँख भरकर उस जगह को देखा, शून्य था वहाँ। कोई तलहटी न थी उस खड्ढ में। आगे कुछ था ही नहीं।
     तुम उसकी घबड़ाहट समझ सकते हो। वह जो लौटकर भागा, वह जो भागा, तो रुका ही नहीं। वह जाकर गुरु के चरणों में ही गिरा। तब भी वह कँप रहा था। तब भी वह बोल नहीं पा रहा था। बामुश्किल, उसको पूछा, कि मामला क्या है? हुआ क्या? वह गूँगे जैसा हो गया था। सिर्फ इशारा करता था पीछे की तरफ। क्योंकि जो देखा था, वह बहुत घबड़ाने वाला था। गुरु ने कहा, नासमझ! मैं समझता हूँ। लगता है तू दुनियाँ के अन्त पर पहुँच गया। तख्ती मिली थी, जिस पर लिखा था कि यहाँ दुनियाँ का अन्त है? उसने कहा, कि बिल्कुल ठीक! मिली थी। तूने तख्ती के उस तरफ देखा, क्या लिखा था, उसने कहा, कि उस तरफ खाली शून्य था। मैं तो देखकर जो भागा हूँ, तो रुका ही नहीं कहीं। पानी के लिए नहीं, भूख के लिए नहीं। उस तरफ तो मैने नहीं देखा। गुरु ने कहा, वही भूल हो गई। अगर तू उस तरफ तख्ती के देख लेता, तो इस तरफ लिखा है, यहीं दुनियाँ का अऩ्त होता है, उस तरफ लिखा है, यहाँ परमात्मा का प्रारम्भ होता है।
     एक सीमा पूरी होती है, दूसरी सीमा शुरु होती है। परमात्मा निराकार है। शून्य में उसी निराकार के करीब तुम पहुँचोगे। इसका मतलब, जहां तुम्हारा राग-रंग समाप्त होता है, जहां दुनियाँ समाप्त होती है, जहाँ जीवन के खेल-खिलौने समाप्त होते हैं, आखिरी पड़ाव आ जाता है। देख लिया सब, जान लिया सब, हो गया दो कौड़ी का, कुछ सार न पाया। सब बुदबुदे टूट गये, फूट गये, सब रंग बेरंग हो गये। दुनियाँ के अन्त होने का अर्थ है, जहाँ वासना समाप्त हो गई। वासना ही दुनियां है। महत्वाकाँक्षा का विस्तार ही संसार है। लेकिन वहां आते ही घबड़ाहट होगी। क्योंकि वहाँ फिर शून्य साक्षात खड़ा हो जाता है। जहाँ महत्वाकाँक्षा मिटती है, वहाँ शून्य रह जाता है। उस शून्य को बुद्धपुरुष निर्वाण, मोक्ष कहते हैं। सूफी फकीर उसको फना कहते हैं। मिट जाना बिलकुल मिट जाना, न हो जाना, उस न हो जाने में ही सब हो जाना है।

Thursday, January 7, 2016

सुनकर ह्मदय में उतारें

JAI GURU JI
एक मूर्तिकार ने तीन मूर्तियाँ बनाईं। तीनों एक-सी थी। मूर्तिकार ने पहली मूर्ति का मूल्य 5 रुपए, दूसरी का 50 रुपये और तीसरी मूर्ति का मूल्य 50 हजार रुपए रखा। सभी लोग आश्चर्यचकित थे। जो आता यही कहता तीनों मूर्तियां बिल्कुल समान हैंष फिर मूल्य में अंतर क्यों? बात राजा तक पहुँची। राजा नें मूर्तिकार को बुलाकर पूछा-जब तीनों मूर्तियाँ एक-सी हैं, तो मूल्य में अंतर क्यों? मूर्तिकार बोला-हुज़ूर! यह तो इनके गुणों के अनुसार है। राजा ने मंत्री से पूछा, महामंत्री, मूर्तियों के मूल्य में इतना अंतर क्यों? जबकि रूप-रंग में तीनों समान हैं। मंत्री महोदय ने कुछ सोचा और फिर एक सलाई मंगवाई। मंत्री ने पहली मूर्ति के कान में सलाई डाली, तो वह दूसरे कान से निकल गई। दूसरी मूर्ति के कान में सलाई डाली, तो वह मुँह से निकल आई। अब तीसरी मूर्ति के कान में सलाई डाली, तो वह सलाई ह्मदय में उतर गई।
     मंत्री जी ने कहा, राजन्! यह सत्य है कि तीनों मूर्तियों का मूल्य अलग-अलग होना चाहिए। जो व्यक्ति कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देता है, वह निकृष्ट है। जो कान से सुनकर मुँह से बोल देता है, वह मध्यम श्रेणी का व्यक्ति है। और जो व्यक्ति कान से सुनकर बातों को ह्मदयंगम् कर लेता है, वही उत्कृष्ट है। इसलिए तीसरी मूर्ति कीमती है। और इन मूर्तियों का यही रहस्य है।
जीवन का सत्य भी यही है कि हर व्यक्ति को जीवन में अच्छी बातें (सत्संग) जानकर, सुनकर ह्मदयगम करना लेना चाहिए। जो व्यक्ति सत्संग एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं। वह निकृष्ट, और जो व्यक्ति एक कान से सुनकर कर दूसरों को तो सुनाते हैं लेकिन आप अमल नहीं करते वे पहले वालों की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं वे मध्यम वर्ग के हैं और जो व्यक्ति सत्संग सुनकर उस पर अमल करते हैं अर्थात उसे ह्मदयंगम् कर लेते हैं वे सर्वश्रेष्ठ हैं। ऐसे व्यक्ति  सुखी और सफल होते हैं।

Wednesday, January 6, 2016

जो निर्भार है, वही ज्ञानी है

ऐसा हुआ कि श्री गुरु नानक देव जी एक गांव के बाहर एक कुँए के तट पर आकर ठहरे। वह गांव सूफियों का गांव था। उनका बड़ा केन्द्र था। वहां बड़े सूफी थे, गुरु थे, पूरी बस्ती ही सूफियों की थी। खबर मिली सूफियों के गुरु को, तो उसने सुबह ही सुबह गुरुनानक देव जी के लिए एक कप में भर कर दूध भेजा। दूध लबालब भरा था। एक बूंद भी और न समा सकती थी। उन्होंने पास की झाड़ी से एक फूल तोड़कर उस दूध की प्याली में डाल दिया। फूल तिर गया। फूल का वज़न क्या? उसने जगह न माँगी। वह सतह पर तिर गया। और प्याली वापस भेज दी। श्री गुरुनानक देव जी का शिष्य मरदाना बहुत हैरान हुआ कि मामला क्या है? उसने पूछा कि मैं कुछ समझा नहीं , क्या रहस्य है? यह हुआ क्या? श्री गुरु नानकदेव जी ने फरमाया, कि सूफियों के गुरु ने खबर भेजी थी कि गांव में बहुत ज्ञानी हैं, अब और जगह नहीं। मैने खबर वापस भेज दी है कि मेरा कोई भार नहीं है। मैं जगह मांगूंगा ही नहीं, फूल की तरह तिर जाऊँगा।
     जो निर्भार है वही ज्ञानी है। जिसमें वज़न है, अभी अज्ञानी है, और जब तुममे वज़न होता है तब तुमसे दूसरे को चोट पहुंचती है। जब तुम निर्भार हो जाते हो, तब तुम्हारे जीवन का ढंग ऐसा होता है कि उस ढंग से चोट पहुंचनी असंभव हो जाती है। अहिंसा अपने-आप फलती है, प्रेम अपने-आप लगता है, कोई प्रेम को लगा नहीं सकता, और न कोई करुणा को आरोपित कर सकता है। अगर तुम निर्भार हो जाओ, तो ये सब घटनाएं अपने से घटती हैं, जैसे आदमी के पीछे छाया चलती है, ऐसे भारी आदमी के पीछे घृणा, हिंसा, वैमनस्य, क्रोध व हत्या चलती है। हल्के मनुष्य के पीछे प्रेम, करुणा, दया, प्रार्थना अपने-आप चलती है इसलिए मौलिक सवाल भीतर से अंहकार को गिरा देने का है।