Sunday, October 30, 2016

शमशान ही बस्ती है

शमशान ही बस्ती है
   एक व्यक्ति किसी गाँव में पहुँच जाना चाहता था।जाने कितनी देर से चल रहा था वह पर मन्जिल जैसे दूर दूर भाग रही थी। सूर्य प्रतिपल अस्ताचल की ओर सरकता जा रहा था। जंगल के वह सुनसान एवं अन्जान रास्ते पर से गुजरते हुए बड़ा चिन्तित था और अंधेरा घिरने से पहले  किसी गाँव तक सकुशल पहुँच जाना चाहता था। तभी आगे जंगल में मन्दिरनुमा खण्डहर के सामने बैठे एक साधु को देखकर उसके चिंतित मन को थोड़ा ढाढस बंधा। साधु के समीप जाकर प्रणाम कर उसने सानुरोध पूछा-महात्मन।मैं एक पथिक हूँ।इधर के रास्ते सेअनजान हूँ, विश्रांति के लिये रात्रि होने से पहले किसी बस्ती तक पहुँच जाना चाहता हूँ,क्या आप बता सकते हैं, इधर पास में कोई बस्ती है?साधु ने पथिक की ओर देखा। फिर उसे इशारा से उधर का रास्ता बता दिया जिधर कुछ दूरी पर एक जगह से धुआँ उठ रहा था। पथिक उस जगह भागा भागा जा पहुँचा,किन्तु तत्काल साधु के पास पुनः लौट आयाऔर शिकायत भरे लहजे में तनिक रोष भरे स्वर में बोला।यह क्या महात्मन् मैने आपसे  बस्ती  का  रास्ता पूछा था, किन्तु आपने मुझे श्मशान का रास्ता बता दिया।उसकी बात सुनकर साधुअनायास अट्टहास कर उठा। पथिक ने इसेअपनाअपमान समझा।और नाराज़गी भरे स्वर में कहा-एक तो आपने मुझे गलत रास्ता बताया और ऊपर से मेरी बातों का मज़ाक बनाकर मेरा उपहास उड़ा रहे हैं। साधु उसकी नाराज़गी पर ज़रा भी असंयमित नहीं हुआ। वह संयत स्वर में बोला-वत्स। मुझे तुम्हारी विवशता पर नही बल्कि तुम्हारीअल्प बुद्धि पर हँसी आ गई थी। गलती पर मैं नहीं,बल्कि तुम हो।तुम्हारी तरह प्रत्येक संसारी यह गलती करता है। वस्तुतः तुम जिसे श्मशान समझ रहे हो,वही असली बस्ती है और जिसे तुम बस्ती समझते हो वह बस्ती नहीं, बल्कि एक सराय मात्र है, जहाँ तुम जैसे संसारी लोग दुख-सुख अपने पराए, पिता-पुत्र,पति पत्नि, बन्धु बान्धव आदि जैसे नाना भाँति के मायारूपी गृह जंजालों में उलझते सुलझते यात्रियों की भाँति आते हैं,सराय में कुछ दिनों तक निवास करते हैं और फिर एक दिन उसी श्माशन रूपी बस्ती में हमेंशा के लिये जा बसते हैं।आप जिसे बस्ती कहते हैं वहाँ से आकर उन्हें यहाँ बसते हुए हमने कई बर्षों से देखा है यहाँ से वहाँ जाते हुए किसी को नहीं देखा। तुम्ही बताओ, तुमने अपनी बस्ती से तो सबको लाकर यहाँ बसते देखा है,लेकिन क्या कभी किसी वहाँ जा बसे व्यक्ति को अपनी बस्ती में आते देखा है?पथिक इस बात पर मौन रह गया।

Wednesday, October 26, 2016

तुम कौन हो लिखकर लाओ


गुरुजिएफ के पास जब पहली दफा आस्पेन्स्की गया तो गुरुजिएफ ने उससे कहा, एक कागज़ पर लिख लाओ तुम जो भी जानते हो, ताकि उसे मैं संभाल कर रख लूँ उस सम्बन्ध में कभी चर्चा न करेंगे। क्योंकि जो तुम जानते ही हो,बात समाप्त हो गयी।आस्पेन्स्की को कागज़ दिया। आस्पेन्सकी बड़ा पंडित था।और गुरुजिएफ से मिलने के पहले एकबहुत कीमती किताब जो लिख चुका था जो एक महत्वपूर्ण किताब थी।और जब गुरुजिएफ के पासआस्पेन्सकी गया,तो एक ज्ञाता की तरह गया था। जगतविख्यात आदमी था।गुरजिएफ को कोई जानता भी नहीं था। किसी मित्र ने कहा था गांव में,फुरसत थी,आस्पेन्सकी ने सोचा कि चलो मिल लें। जब मिलने गया तो गुरजिएफ कोई बीस मित्रों के साथ चुपचाप बैठा हुआ था।आस्पेन्स्की भी थोड़ी देर बैठा, फिर घबड़ाया। न तो किसी ने परिचय कराया,उसका कि कौन है,न गुरजिएफ ने पूछा कि कैसेआए हो। बाकी जो बीस लोग थे, वह भी चुपचाप बैठे थे तो चुपचाप ही बैठे रहे। पांच-सात मिनट के बाद बेचैनी बहुत आस्पेन्स्की की बढ़ गयी। न वहां से उठ सके,न कुछ बोल सके।आखिर हिम्मत जुटाकर उसने कोई बीस मिनट तक तो बर्दाश्त किया, फिर उसने गुरजिएफ से कहा कि माफ करिये, यह क्या हो रहा है?आप मुझसे यह भी नहीं पूछते कि मैं कौन हूँ?गुरजिएफ ने आँखें उठाकर आस्पेन्सकी की तरफ देखा और कहा, तुमने खुद कभी अपने से पूछा है कि मैं कौन हूँ?और जब तुमने ही नहीं पूछा, तो मुझे क्यों कष्ट देते हो? या तुम्हें अगर पता हो कि तुम कौन हो, तो बोलो। तो आस्पेन्स्की के नीचे से ज़मीन खिसकती मालूम पड़ी। अब तक तो सोचा था कि पता है कि मैं कौन हूँ।सब तरफ से सोचा, कहीं कुछ पता न चला कि मैं कौन हूँ।
     तो गुरजिएफ ने कहा, बेचैनी में मत पड़ों, कुछ और जानते होओ, उस सम्बन्ध में ही कहो। नहीं कुछ सूझा तो गुरजिएफ ने एक कागज़ उठाकर दिया और कहा, हो सकता है संकोच होता हो,पास के कमरे में चले जाओ। इस कागज पर लिख लाओ जो जो जानते हो। उस सम्बन्ध में फिर हम बात न करेंगे और जो नहीं जानते हो, उस सम्बन्ध में कुछ बात करेंगे।आस्पेन्सकी कमरे में गया।उसने लिखा है,सर्द रात थी,लेकिन पसीना मेरा माथे से बहना शुरू हो गया पहली दफा मैं पसीने पसीने हो गया।पहली दफे मुझे पता चला कि जानता तो मैं कुछ भी नहीं हूँ।यद्यपि मैने ईश्वर के सम्बन्ध में लिखा है,आत्मा के सम्बन्ध में लिखा है,लेकिन न तो मैं आत्मा को जानता हूँ,न मैं ईश्वर को जानता हूँ। वह सब शब्द मेरी आँखों में घूमने लगे। मेरी ही किताबें मेरे चारों तरफ चक्र काटने लगीं। और मेरी ही किताबें मेरा मखौल उड़ाने लगीं,और मेरे ही शब्द मुझसे कहने लगे, आस्पेन्सकी जानते क्या हो?और तब इसने वह कोरा कागज़ ही लाकर गुरजिएफ के चरणों में रख दियाऔर कहा,मैं बिलकुल कोरा हूँ जानता कुछ नहीं हूँ, अब जिज्ञासा लेकर उपस्थित हुआ हूँ वह जो कोरा कागज़ था, वह आस्पेन्स्की की समिधा थी।जब भी कोई पूरा विनम्र भाव से----विनम्र भाव का अर्थ है, पूरे अज्ञान के बोध से गुरु के पास सीखने जाए।

Friday, October 21, 2016

बंदगी

एक राजा की कथा है कि किसी बड़े राजा ने उसपर आक्रमण करके उसका राज्य छीन लिया। पुराने ज़माने में छोटे छोटे राज्य हुआ करते थे और बड़े राज्यों के शासकआमतौर पर या तो छोटे छोटे राजाओं से कर वसूल करते थे, या उन परआक्रमण करके उनके राज्य अपने अधिकार में ले लिया करते थे। ऐसा ही यहाँ भी हुआ।बड़े राजा ने छोटे राजा का राज्य दबा लिया। राज्य छिन जाने पर उसके मनमें संसार की असारता का गहरा प्रभाव पड़ा और वह दुनियादारी से किनारा करके जंगल में रहकर भजन-बन्दगी करने लगा।
     कुछ समय पश्चात उसकी बंदगी रंग लाई। वह एक सिद्ध महात्मा बन गया। लोग दूर दूर से उसके दर्शनों को आने लगे।आसपास उसकी बड़ी प्रसिद्धि फैल गई। और उसे बहुत माना जाने लगा। वह राजा भी जिसने उसकेराज्य को दबा लिया था उसने भी विजित राजा की प्रसिद्धि सुनी औरअपनी रानी तथा मन्त्रियों सहित दर्शन को चला। बड़ी श्रद्धा से उसने पराजित राजाअर्थात तपस्वी राजा के आगे सीस नवाया और हाथ जोड़कर विनय की,""भगवन्!आप मुझसेअपना राज्य वापिस ले लीजिये।
इसके अतिरिक्त और भी जो कुछ आप आज्ञा करें मैं उपहार के रूप में आपकी भेंट करूँ।''तपस्वी राजा ने उत्तर दिया,""महाराज! आपका बहुत बहुत धन्यवाद,जोआपने इस कदर सौजन्य प्रकट किया।राज्य की तो खैर अब मुझे कोई इच्छा नहीं रही।हाँ,यदिआप दे सकते हैं,तो मैं कुछ वस्तुयें माँगना चाहता हूँ।''विजयी राजा ने बड़े गर्व से कहा,""हाँ-हाँ?आपसंकोच त्यागकर कहिये। जो कुछ भी आप माँगेंगे, मै तुरन्त हाज़िर करूँगा।'' तपस्वी राजा ने कहा,""अच्छा! तो सुनिये, ऐसा जीवन जिसे कभी मृत्यु का खटका न हो, ऐसा धन जो स्थिर हो, ऐसा यौवन जिसे कभी बुढ़ापा नष्ट न कर सके,ऐसा सुख जिसके उपरान्त कभी दुःख नआने पावे,और ऐसी खुशी जिस पर कभी रंज या विषाद की अन्धेरी छाया न पड़ सके, बस ये पाँच वस्तुयें मुझे दरकार हैं। यदि आप दे सकते हैं,तो यही कृपा कीजिये।''विजयी राजा का सीस झुक गया।वह बोला,"'भगवन्!ये वस्तुयें तो मैं नहीं दे सकता।ये तो ईश्वर से ही मिल सकती हैं।''तपस्वी राजा ने इतने ज़ोर से अट्टहास किया कि जंगल और पहाड़ियाँ गूँज उठीं।""बस इसी बल-बूते पर दानशील बनने का दावा कर रहे थे आप?अरे नादान! ये सब वस्तुयें तू या और कोई इन्सान भी नहीं दे सकता। इसी कारण तो मैने उस लोक-परलोक के स्वामी परमेश्वर की शरण ली है।तथा यदि ये सब प्राप्त न हों, तो फिर राज्य ले लेने से भी क्या लाभ होगा? जाओ,अपना काम करोऔर मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो।''
     मनुष्य की सीमाबद्ध शक्ति कर भी क्या सकती है और मालिक की असीम शक्तियाँ क्या नहीं कर सकती।यही समझनेऔर विचार करने की बात है।अज्ञानी मनुष्य आमतौर पर यह सोचा करते हैं कि हूँह। मालिकहमें खाने के लिये देने थोड़े ही आवेगा।लेकिन यही तो उनकी भूल है। मालिक तो उऩ्हें भी भोजन और सुख की सब सामग्री देता है, जो कभी भूलकर भी उसकी याद नहीं करते।फिर जो भक्त सबका भरोसा त्याग कर उसी प्रभु का ही भरोसा मन में दृढ़ कर लेगा और उसकी याद मे दिलो-जान से लगा होगा क्या वे प्रभु उसकी सँभाल और देखभाल न करेंगे? वह मालिक अपने भक्तों का दुःख दर्द बटाने और उनकी सँभाल करने को सदा प्रस्तुत रहते  हैं।

Tuesday, October 18, 2016

करोड़ों रूपया देकर भी एक क्षण न मिला


     एक कंजूस-महाकंजूस की मौत करीब आयी।उसने करोड़ों रूपये इकट्ठे कर रखे थे।और वह सोच रहा था किआज नहीं कल जीवन को भोगूंगा। लेकिन इकट्ठा करने में सारा समय चला गया, जैसा कि सदा ही होता है। जब मौत ने दस्तक दी तब वह घबड़ाया, कि समय तो चूक गया, धन भी इकट्ठा हो गया, लेकिन भोग तो मैं पाया नहीं। सोच ही रहा था कि भोगना है। यह तो ज़िन्दगी भर से सोच रहा था और स्थगित कर रहा था कि जब सब हो जाएगा तब भोग लूँगा। उसने मौत से कहा, कि मैं एक करोड़ रूपये दे देता हूँ, सिर्फ चौबीस घंटे मुझे मिल जाएं। क्योंकि मैं भोग तो पाया ही नही। मौत ने कहा,कि यह सौदा नहीं हो सकेगा।उसने कहा कि मैं पाँच करोड़ दे देता हूं,मैं दस करोड़ दे देता हूँ,सिर्फ चौबीस घंटे। यह सब उसने इकट्ठा किया पूरा जीवन गँवाकर। अब वह सब देने को राज़ी है चौबीस घंटे के लिये। क्योंकि न तो उसने कभी पूरा मन से साँस ली,न कभी फूलों के पास बैठा,न उगते सूरज को देखा,न चांद तारों से बात की।न खुलेआकाश के नीचे हरी दूब पर कभी क्षण भर लेटा। जीवन को देखने का मौका न मिला। धन एकत्र करता रहा और सोचता रहा,आज नहीं कल,जब सब मेरे पास होगा, तब भोग लूँगा। सब देने को राज़ी है, लेकिन मौत ने कहा कि नहीं। कोई उपाय नहीं। तुम सब भी दो,तो भी चौबीस घंटे मैं नहीं दे सकती हूँ। कोई उपाय नहीं, समय गया। तुम उठो, तैयार हो जाओ। तो उस आदमी ने कहा, एक क्षण,वह मेरे लिए नहीं,मैं लिख दूँ, मेरे पीछे आने वाले लोगों के लिए। मैने ज़िन्दगी गँवायी इस आशा में, कि कभी भोगूँगा और जो मैने कमाया उससे मैं मृत्यु से एक क्षण भी लेने में समर्थ न हो सका। उस आदमी ने यह एक कागज़ पर लिख दिया और खबर दी कि मेरी कब्रा पर इसे लिख देना।
   सभी कब्राों पर लिखा हुआ है। तुम्हारे पास पढ़ने को आँखें हो तो पढ़ लेना और तुम्हारी कब्रा पर भी यही लिखा जाएगा, अगर चेते नहीं। अगर तुम देखो, तो तुम्हें जो मिला है वह अपरंपार है। जीवन का कोई मुल्य है? एक क्षण के जीवन के लिए तुम कुछ भी देने को राज़ी हो जाओगे। लेकिन वर्षों के जीवन के लिए तुमने परमात्मा को धन्यवाद भी नहीं दिया।मरूस्थल में मर रहे होंगे प्यासे,तो एक घूंट पानी के लिए तुम कुछ भी देने को राज़ी हो जाओगे। लेकिन इतनी सरिताएँ बह रही हैं, वर्षा में इतने बादल तुम्हारे घर पर घुमड़ते हैं, तुमने एक बार उन्हें धन्यवाद नहीं दिया। अगर सूरज ठंडा हो जाएगा तो हम सब यहीं के यहीं मुर्दा हो जाएंगे, इसी वक्त लेकिन हमने कभी उठकर सुबह सूरज को धन्यवाद न दिया।

Friday, October 14, 2016

दुःखों की गठरियां


एक यहूदी फकीर हुआ। वह फकीरअपने दुःखों से बहुत परेशान हो गया है। कौन परेशान नहीं हो जाता है? हम सब अपने दुःखों से परेशान हैं। और हमारे दुःख की परेशानी में सबसे बड़ी परेशानी दूसरों के सुख हैं। दूसरे सुखी दिखाई पड़ते हैं और हम दुःखी होते चले जाते हैं।हम सोचते हैं कि सारी दुनियाँ सुखी है,एक मैं ही दुःखी हूँ। उस फकीर को भी ऐसा ही हुआ। उसने एक दिन रात परमात्मा को कहा कि मैं तुझसे यह नहीं कहता कि मुझे दुःख न दे, क्योंकि अगर मैं दुःख देने योग्य हूँ तो मुझे दुःख मिलेगा ही, लेकिन इतनी प्रार्थना तो कर सकता हूँ कि इतना ज्यादा मत दे। दुनियां में सब लोग हँसते दिखाई पड़ते हैं, लेकिन मैं भर एक रोता हुआ आदमी हूँ। सब खुश नज़र आते हैं एक मैं ही उदास,अंधेरे में खो गया हूं। आखिर मैने तेरा क्या बिगाड़ा है? एक कृपा कर,मुझे किसी भी दूसरे आदमी का दुःख दे दे और मेरा दुःख उसे दे दे, बदल दे किसी से भी, तो भी मैं राज़ी हो जाऊँगा।
     रात वह सोया और उसने एक सपना देखा। एक बहुत बड़ा भवन है और उस भवन में लाखों खूंटियां लगी है। और लाखों लोग चले आ रहे हैं। और प्रत्येक आदमी अपनी अपनी पीठ पर दुःखों की एक गठरी बांधे हुए है। दुखों की गठरी देखकर वह बहुत डर गया,क्योंकि उसे बड़ी हैरानी मालूम पड़ी। जितनी उसकी गठरी है दुखों की-वह भीअपनी दुःखों की गठरी टांगे हुए है-सबके दुःखों की गठरियों का जो आकार है,वह बिलकुल बराबर है। मगर बड़ा हैरान हुआ। यह पड़ोसी तो उसका रोज मुस्कुराता दिखता था।औरसुबह जब उससे पूछता था कि कहो कैसे हाल हैं, तो वह कहता था कि बड़ा आनन्द है,ओ के,सब ठीक है।यह आदमी भी इतने ही दुःखों का बोझ लिये चला आ रहा है। उसमें नेता भी उतना ही बोझ लिये हुए हैं।अनुयायी भी उतना ही बोझ लिये हुए हैं।उसमें सभी उतना बोझ लिये हुए चले आ रहे हैं। ज्ञानी और अज्ञानी,अमीर और गरीब,और बीमार और स्वस्थ,सबके बोझ की गठरी बराबर है।
     आज पहली दफा गठरियां दिखाई पड़ीं। अब तक तो चेहरे दिखाई पड़ते थे। फिर उस भवन में एक जोर की आवाज़ गूँजी कि सब लोग अपने अपने दुःखों को खूंटियों पर टांग दें। इसने भी जल्दी से अपना दुःख खूंटी पर टांग दिया। सारे लोगों ने जल्दी की है अपना दुःख टांगने की। कोई एक क्षण अपने दुःख को अपने ऊपर रखना नहीं चाहता। टांगने का मौका मिले,तो हम जल्दी से टांग ही देंगे।और तभी एक दूसरी
आवाज़ गूँजी किअब जिसने जिसकी गठरी चुनना हो वह चुन ले तो हम सोचेंगे कि उस फकीर ने जल्दी से किसी और की गठरी चुन ली होगी। नहीं, ऐसी भूल उसने नहीं की। वह भागा घबरा कर अपनी ही गठरी को उठाने के लिए कि कहीं और कोई पहले न उठा ले,अन्यथा मुश्किल में पड़ जाये,क्योंकि गठरियां सब बराबर थीं। अब उसने सोचा कि अपनी गठरी ही ठीक है,कम से कम परिचित दुःख तो हैं उसके भीतर।दूसरे की गठरियों के भीतर पता नही कौन से अपरिचित दुःख हैं। परिचित दुःख फिर भी कम दुःख है-जाना-माना,पहचाना। घबराहट में दौड़कर अपनी गठरी उठा ली कि कोई और दूसरा मेरी न उठा ले। लेकिन जब उसने घबराहट में उठाकर चारों तरफ देखा तो उसने देखा कि सारे लोगों ने दौड़कर अपनी ही उठा ली है, किसी ने भी किसी की नहीं उठाई।उसने पूछा कि इतनी जल्दी क्यों कर रहे हो अपनी उठाने की?तो उन्होने कहा कि हम डर गए। अब तक हम यही सोचते थे कि सारे लोग सुखी हैं,हम ही दुःखी हैं।उसने जिससे पूछा उस भवन में,उसने यही कहा कि हम यही सोचते थे कि सारे लोग सुखी हैं। हम तो तुम्हें भी सुखी समझते थे, तुम भी तो रास्ते पर मुस्कुराते हुए निकलते थे। हमने कभी सोचा न था कि तुम्हारे भीतर भी इतनी गठरियों के दुःख हैं। उस फकीर ने पूछा,अपने-अपने क्यों उठा लिए,बदल क्यों न लिए? उन्होने कहा हम सबने प्रार्थना की थी भगवान से आज रात कि हम अपनी गठरियां बदलना चाहते हैं दुःखों की।मगर हम डर गए। हमें ख्याल भी न था कि सब के दुःख बराबर हो सकते हैं। फिर हमने सोचा अपनी ही उठा लेना अच्छा है। पहचान का है, परिचित है।और नए दुःखों में कौन पड़े। पुराने दुःख धीरे धीरे हम आदी भी तो हो जाते है उनके।
    उस रात किसी ने भी किसी की गठरी न चुनी। फकीर की नींद टूट गई। उसने भगवान को धन्यवाद दिया कि तेरी बड़ी कृपा है कि मेरा ही दुःख मुझे वापिस मिल गया।अब मैं कभी ऐसी प्रार्थना न करूँगा।

Sunday, October 9, 2016

मौत को सदा याद रखो


एक युवक एक सन्त जी के पास आता था।एक दिन उसने उनसे प्रश्न किया कि आपका जीवन ऐसा निर्मल है आपके जीवन की धारा ऐसी निर्दोष है कि कहीं कोई मलिनता नहीं दिखाई देती।आपका जीवन इतना पवित्र है, आपके जीवन में इतनी सात्विकता है इतनी शान्ति है लेकिन मेरा मन में यह प्रश्न उठता है कि कहीं यह सब ऊपर ही ऊपर तो नहीं, कहीं ऐसा तो नहीं कि भीतर मन में विकार भी चलते हों मन में वासनायें भी चलती हों भीतर पाप भी चलता हो भीतर अपिवत्रता, बुरार्इंया हों भीतरअन्धकार हो,अशान्ति हो,चिन्ता हो ऊपर से आपने सब व्यवस्था कर रखी हो। क्योकि मुझे भरोसा नहीं आता कि अदमी इतना शुद्ध कैसे हो सकता है मैने आपको सब तरफ से देखा और परखा है कहीं कोई भूल दिखाई नहीं पड़ती। हो सकता है मेरी खोज की सामथ्र्य आपकी छिपाने की सामथ्र्य से कम होगी ऐसा सन्देह मन में होता है कि आप में कहीं न कहीं भूल होनी चाहिए।
       सन्त जी ने कहा कि तुम्हारा प्रश्न का उत्तर तो मैं बाद में दूँगा। कई दिन से एक बात मैं तुझे कहना चाहता था लेकिन कह नहीं पाता था। वह ये कि कई दफे तेरा हाथ पर नज़र गई लेकिन में सोचता था अभी तो देर हैअभी क्यों तुझे मरने से पहले मार देना। लेकिन अब देर नहीं है अब सत्य को छिपाना उचित नहीं है। कल सुबह सूरज उगने के साथ ही तेरा अन्त हो जायेगा। इधर सूरज उगेगा, उधर तेरा सूरज डूब जायेगा। तेरी मौत की घड़ी करीब आ गई है।यह हमारा तुम्हारा आखरी मिलन है। अब मै तुझे कह के निश्चिन्त हुआ। तुझसे कह के मेरा बोझ हलका हो गया।अब तू पूछ क्या पूछना है?वह युवक प्रश्न पूछना भूल गया। जब अपनी मौत आ गई तो किस में दोष हैं किसमें दोष नहीं हैं किसको क्या प्रयोजन है? वह उठकर खड़ा हो गया उसने कहा कि मुझे अभी कोई प्रश्न नहीं सूझता।मुझे अब घर जाने दें। सन्त ने कहा।रूको भी इतनी जल्दी क्या है। कल सुबह कोअभी काफी देर है अभी तो दिन पड़ा है रात पड़ी है चौबीस घन्टे लगेंगे इतनी घबड़ाने की कोई ज़रूरत नहीं हैअपना प्रश्न तो पूछते जाओ फिर मैं उत्तर दे न पाऊंगा। क्योंकि कल तुम विदा हो जाओगे। युवक ने कहा रखो अपना उत्तर अपने पास मुझे कोई प्रश्न नहीं पूछना मुझे घर जाने दो।हाथ पैर उसके काँपने लगे। आया था  तो शरीर में  बल था जवानी थी लेकिन लौटते समय दीवार का सहारा लेकर चलने लगा।अचानक स्वास्थ्य खो गया।घर जाकर बिस्तर पर लग गया घर के लोगों ने कहा क्या हुआ है आज?कोई बिमारी है, कोई दुःख है कोई पीड़ा है,कोई चिन्ता है? उस युवक ने कहा न कोई बिमारी है न कोई दुःख लेकिन सब गया चिन्ता है भीतर एक कँपकपी है कल मर जाना है फकीर ने कहा है कि उम्र की रेखा कट गई है। घर के लोग रोने लगे। मोहल्ले पड़ोस के लोग एकत्र हो गये। वह युवक बुझी बुझी हालत में था। अब गया तब गया। तभी फकीर ने द्वार पर दस्तक दी कहा रोओ मत। मुझे भीतर आने दो।चुप हो जाओ।उस युवक को हिलाया कहाआँखें खोल उसने आँखें खोलीं। फकीर ने कहा तेरे सवाल का जवाब देने आया हूँ युवक ने कहा जवाब माँगता कौन है?फकीर ने कहा जो मैने यह तेरे हाथ की रेखा की बात कही है वह तेरा सवाल का जवाब है अभी तेरी मौत आई नहीं है। वह युवक यह सुनकर उठकर बैठ गया-तो मौत नहीं आ रही है ?फकीर ने कहा यह मज़ाक था सिर्फयह बताने को कि अगर मौत आती है तो आदमी के जीवन में पाप खो जाता है।चौबीस घन्टे में कोई पाप किया? किसी को दुःख पहुँचाया?किसी से झगड़ा किया?उस युवक ने कहा-दुःख की बात करते हैं। दुश्मनों से क्षमा माँग ली। सिवाय प्रार्थना के इन चौबीस घन्टों में कुछ नहीं किया। फकीर ने कहा जो पवित्रता मेरे जीवन में दिखाई देती है वह मौत के बोध के कारण है। तुझे चौबीस घन्टे बाद मौत दिखाई पड़ी मुझेचौबीस साल बाद दिखाई पड़ती है इससे क्या फर्क पड़ता है मौत सत्तर दिन बाद आयेगी कि सत्तर साल बाद आयेगी। जो आ रही है वहआ ही गई है।इस बोध ने मेरे जीवन को बदल दिया है।
मृत्यु का बोध जीवन को रूपान्तरित करता है जीवन को पुष्य कीगरिमा से भरता है जीवन को पवित्रता की सुवास से भरता है जीवन को पँख देता हैपरलोक जाने के लिये परमात्मा की खोज कीआकाँक्षा जगाता है।

Thursday, October 6, 2016

अनुचित व्यवहार पर भी प्रभु से क्षमा याचना


     अयोध्या निवासी एक सन्त परम वैष्णव थे। दया-क्षमा और करूणा उन के जीवन के आभूषण थे। एक बार वे नौका द्वारा सरयू नदी को पार करने की इच्छा से घाट पर आये। उस समय नदी बाढ़ पर थी। एक ही नौका थी इसलिये उसमें पहले से ही अनेक यात्री बैठे थे। उन में आज के चंचलता और कुटिलता से भरे हुए युग के प्रतिनिधि पाँच-सात व्यक्ति भी विद्यमान थे। सन्त और सन्त के वेष में ऐसों को वैसे ही प्रायः घृणा होती है। किसी की खिल्ली उड़ाना उन का सहज स्वभाव था। फिर कोई सन्त उनकी नाव में आ बैठे-यह उनको स्वीकार न था। उन्हीं कुटिल युवकों की ओर से आवाज़ आई यहाँ स्थान नहीं है। दूसरी नौका से आ जाना। अनेक प्रकार के कटु शब्द भी कह दिये। सन्त जी असमंजस में पड़ गये। नौका दूसरी कोई थी नहीं। उन्होने नाविक से प्रार्थना की। मल्लाह ने कहा- एक ओर बैठ जाइये।
     वे दुष्ट प्रकृति के लोग कुछ कह न सके, और अब लगे उन सन्त जी पर ही कीच उछालने। परन्तु साधू जी शान्त भाव से भगवन्नाम का स्मरण करते रहे। नाव जब जल के बीच पहुँची तो वह शठ मण्डली और भी चंचल हो गई। कोई उन पर पानी उलीचने लगा, किसी ने कंकड़ी दे मारी, एक ने पास में पड़ा नुकीला कील ही उन की खोपड़ी पर फैंक दिया, परिणाम यह हुआ कि सिर से रुधिर बहने लगा। परन्तु सन्त जी उसी शान्ति की मुद्रा मैं बैठे रहे। अत्याचार की मात्रा और बढ़ गई, दूसरे यात्रियों ने उन दुर्जनों को रोका, किन्तु वे कहां मानने वाले थे। भक्तों के अंग-संग श्री भगवान ही तो होते हैं। उनसे भक्त के दुःख को कहां देखा जा सकता है। तत्काल आकाशवाणी हुई। महात्मन्! आप आज्ञा दें तो इन दुष्टों को क्षण भर में भस्मसात कर दिया जाय।
     आकाशवाणी के सुनते ही सब के सब निस्तब्ध रह गये। अब उन्हें काटो तो खून नहीं। अब तक जो सिंह बने हुए थे, उन सबको काठ मार गया। उनकी बोलती बन्द हो गई। परन्तु प्रभु भक्त सन्त जी ने दोनों हाथ जोड़कर परमेश्वर से प्रार्थना की- हे दयासिन्धो! आप ऐसा कुछ भी न कीजिये ये अबोध बच्चे हैं। आप ही यदि इनकी अवज्ञाओं को न भुलाएंगे तो और कौन ऐसा दयावान है। आपका यदि मुझ पर स्नेह है तो इन्हें घनी घनी क्षमा दे दें। इनको सद्बुद्धि प्रदान करें। ये सुजन बन जायें। आपके श्री चरणारविन्दों में इनकी भी प्रीति हो जावे। यह है मानवता। इस जगतीतल पर मनुष्य के जीवन का आदर्श यही होना चाहिये।

Sunday, October 2, 2016

मानसी पूजा


नोट-सन्त बुल्लेशाह इनायतशाह के शिष्य थेऔर बुल्ला साहिब, जिनका नाम पहले बुलाकी राम था,सन्त यारी साहिब के गुरुमुख शिष्य थे। और गुलालचन्द, जो बाद में गुलाल साहिब के नाम से प्रसिद्ध हुए,उनके यहाँ बुल्लेसाहिब नौकरी करते थेऔर विशेषकर हल चलाने के काम पर नियुक्त थे।गुलाल साहिब जब कभी बुल्ला साहिब को काम पर भेजते तो बुल्ला साहिब भजन-ध्यान में लग जाने के कारण प्रायः देर कर देते थे। अन्य नौकरों ने कई बार इनकी सुस्ती की शिकायत गुलालसाहिब से की और वह कई बार बुल्ला साहिब पर क्रद्ध हुए।
     एक दिन का बात है कि बुल्ला साहिब हल चलाने के लिए खेत पर गए थे कि वहँा भगवान के ध्यानऔर मानसी सेवा में लग गए। उसी समय गुलालसाहिब मौके पर पहुंच गएऔर बैलों को हल के साथ फिरते और बुल्लासाहिब को खेत की मेंड़ परआँखें बन्द किये हुए बैठा देखकर यह समझे कि बुल्ला साहिब ऊँघ रहे हैं, अतः गुलाल साहिब ने क्रोध में भरकर उन्हें लात मारी जिससे बुल्ला साहिब एक बारगी चौंक उठे और उनके हाथ से दही छलक गया।यह कौतुक देखकर गुलाल साहिब हक्के-बक्के हो गए। क्योंकि बुल्ला साहिब के हाथ में दही का कोई बर्तन नहीं था। यद्यपि गुलाल साहिब ने बुल्ला साहिब को बड़ी ज़ोर की लात मारी थी, परन्तु फिर भी बुल्ला साहिब बड़ी ही विनम्रता के साथ बोले-क्षमा कीजिये,मैं भगवान का ध्यान करते-करते उनकी सेवा में लग गया था और उन्हें भोग लगवाने के लिए भोजन परोस चुका था,केवल दही बाकी था, उसे परोस ही रहा था कि आपके हिला देने से वह दही गिर गया। बुल्लासाहिब की ऐसी मन की तन्मयताऔर उच्चअवस्था देखकर गुलाल साहिब उनके चरणों पर गिर पड़े,अपनेअपराध के लिए क्षमा माँगी और उसी समय बुल्ला साहिब को अपना गुरु धारण कर लिया।
     उपरोक्त प्रमाण से सत्संगी एवं जिज्ञासु पुरुष स्वयं ही समझ सकते हैं कि मन के एकाग्रता एवं तन्मयतापूर्वक साधन में लगने का कितना महानलाभ है,इसलिए भक्ति के साधनों परआचरण करते हुए जिज्ञासु को इस बात का पूरा ध्यान रखना चाहियेऔर इस बात की पूरी कोशिश करना चाहिये कि शरीरऔर इन्द्रियों के साथ साथ उसका मन भी इन साधनों में एकाग्रता और तन्मयता के साथ संलग्न रहे। ऐसा करने से निश्चय ही उसे पूरा पूरा लाभ होगा और वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल होगा।