Monday, August 29, 2016

बुद्ध से पूछा सुखी कितने हुये


महात्मा बुद्ध एक गाँव में गये और एक आदमी ने उनसे आकर पूछा कि चालीस वर्षों से निरंतर आप गाँव-गाँव घूमते हैं, कितने लोग शांत हुए कितने लोग मोक्ष गये, कितने लोगों का निर्वाण हो गया? कुछ गिनती है, कुछ हिसाब है? वह आदमी बड़ा हिसाबी रहा होगा। बुद्ध को उसने मुश्किल में डाल दिया होगा। क्योंकि बुद्ध जैसे लोग खाता-बही लेकर नहीं चलते हैं, कि हिसाब लगाकर रखें कि कौन शांत हो गया, बुद्ध की कोई दुकान तो नहीं है कि हिसाब रखें। बुद्ध मुश्किल में पड़ गये होंगे। उस आदमी ने कहा, बताइये, चालीस साल से घूम रहे हैं, क्या फायदा घूमने का? बुद्ध ने कहा, एक काम करो, सांझ आ जाना, तब तक मैं भी हिसाब लगा लूँ। और एक छोटा सा काम है, वह भी तुम कर लाना। फिर मैं तुम्हें उत्तर दे दूंगा। उस आदमी ने कहा बड़ी खुशी से, क्या काम है वह मैं कर लाऊँगा। और सांझ आ जाता हूँ हिसाब पक्का रखना, मैं जानना ही चाहता हूँ कि कितने लोगों को मोक्ष के दर्शन हुए, कितने लोगों ने परमात्मा पा लिया। कितने लोग आनन्द को उपलब्ध हो गये। क्योंकि जब तक मुझे यह पता न लग जाये कि कितने लोग हो गये हैं, तब तक मैं निकल भी नहीं सकता यात्रा पर। क्योंकि पक्का पता तो चल जाये कि किसी को हुआ भी है या नहीं हुआ।
     बुद्ध ने उससे कहा, कि यह कागज़ ले जाओ और गाँव में एक एक आदमी से पूछ आओ, उसकी ज़िन्दगी की आकांक्षा क्या है, वह चाहता क्या है? वह आदमी गया, एक छोटा सा गांव था, सौ पचास लोगों की छोटी-सी झोंपड़ियां थी, उसने एक-एक घर में जाकर पूछा। किसी ने कहा कि धन की बहुत ज़रूरत है, और किसी ने कहा कि बेटा नहीं है, बेटा चाहिए। और किसी ने कहा, और सब तो ठीक है लेकिन पत्नी नहीं है, पत्नी चाहिए। किसी ने कहा और सब ठीक है, लेकिन स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है, बीमारी पकड़े रहती है, इलाज चाहिए, स्वास्थ्य चाहिए। कोई बूढ़ा था, उसने कहा कि उम्र चुकने के करीब आ गयी, अगर थोड़ी उम्र मिल जाये और तो बस और सब ठीक है। सारा गाँव में घूमकर सांझ को जब वह लौटने लगा तो रास्ते में डरने लगा कि बुद्ध से क्या कहूँगा जाकर। क्योंकि उसे ख्याल आ गया कि शायद बुद्ध ने उसके प्रश्न का उत्तर ही दिया है। गांव भर में एक आदमी नहीं मिला जिसने कहा, शान्ति चाहिए, जिसने कहा, परमात्मा चाहिए, जिसने कहा आनन्द चाहिए। सुबह बुद्ध मुश्किल में पड़ गये थे, सांझ वह आदमी मुश्किल में पड़ गया। बुद्ध के सामने खड़ा हो गया। बुद्ध ने कहा, ले आये हो? उसने कहा, ले तो आया हूँ। बुद्ध ने कहा, कितने लोग शान्ति चाहते हैं? उस आदमी ने कहा, एक भी नहीं मिला गाँव में। बुद्ध ने कहा, तू चाहता है शान्ति? तो रुक जा। उसने कहा, लेकिन अभी तो मैं जवान हूँ, अभी शान्ति लेकर क्या करूँगा? जब उम्र थोड़ी ढल जाये तो मैं आऊँगा आपके चरणों में, अभी तो वक्त नहीं है, अभी तो जीने का समय है। तो बुद्ध ने कहा, फिर पूछता है वही सवाल? कि कितने लोग शान्त हो गये? उसने कहा, अब नहीं पूछता हूँ।

Friday, August 26, 2016

जो निर्भार है, वही ज्ञानी है

जो निर्भार है, वही ज्ञानी है
ऐसा हुआ कि श्री गुरु नानक देव जी एक गांव के बाहर एक कुँए के तट पर आकर ठहरे। वह गांव सूफियों का गांव था। उनका बड़ा केन्द्र था। वहां बड़े सूफी थे, गुरु थे, पूरी बस्ती ही सूफियों की थी। खबर मिली सूफियों के गुरु को, तो उसने सुबह ही सुबह गुरुनानक देव जी के लिए एक कप में भर कर दूध भेजा। दूध लबालब भरा था। एक बूंद भी और न समा सकती थी। उन्होंने पास की झाड़ी से एक फूल तोड़कर उस दूध की प्याली में डाल दिया। फूल तिर गया। फूल का वज़न क्या? उसने जगह न माँगी। वह सतह पर तिर गया। और प्याली वापस भेज दी। श्री गुरुनानक देव जी का शिष्य मरदाना बहुत हैरान हुआ कि मामला क्या है? उसने पूछा कि मैं कुछ समझा नहीं , क्या रहस्य है? यह हुआ क्या? श्री गुरु नानकदेव जी ने फरमाया, कि सूफियों के गुरु ने खबर भेजी थी कि गांव में बहुत ज्ञानी हैं, अब और जगह नहीं। मैने खबर वापस भेज दी है कि मेरा कोई भार नहीं है। मैं जगह मांगूंगा ही नहीं, फूल की तरह तिर जाऊँगा।
     जो निर्भार है वही ज्ञानी है। जिसमें वज़न है, अभी अज्ञानी है, और जब तुममे वज़न होता है तब तुमसे दूसरे को चोट पहुंचती है। जब तुम निर्भार हो जाते हो, तब तुम्हारे जीवन का ढंग ऐसा होता है कि उस ढंग से चोट पहुंचनी असंभव हो जाती है। अहिंसा अपने-आप फलती है, प्रेम अपने-आप लगता है, कोई प्रेम को लगा नहीं सकता, और न कोई करुणा को आरोपित कर सकता है। अगर तुम निर्भार हो जाओ, तो ये सब घटनाएं अपने से घटती हैं, जैसे आदमी के पीछे छाया चलती है, ऐसे भारी आदमी के पीछे घृणा, हिंसा, वैमनस्य, क्रोध व हत्या चलती है। हल्के मनुष्य के पीछे प्रेम, करुणा, दया, प्रार्थना अपने-आप चलती है इसलिए मौलिक सवाल भीतर से अंहकार को गिरा देने का है।

Tuesday, August 23, 2016

गुरु की तालाश


   एक दिन श्री वचन हुये कि अधिकतर लोग यह कहते हैं कि कोई पूर्ण सन्त मिलते ही नहीं, गुरु करें तो किस को करें? उनसे यह पूछना चाहिये कि क्या तुम पूर्ण शिष्य की श्रेणी पर पहुँच गये हो,जो तुमको पूर्ण गुरु के न मिलने की शिकायत है?यदि तुम्हें पूर्ण गुरु मिल भीजायें, तो तुम उनको किस प्रकार पहचान सकोगे? पूर्ण की पहचान भी तो पूर्ण ही कर सकता है। यदि तुमको वे पूर्णपूरुष ज्ञान-ध्यान आदि की बातें बताना चाहें, तो क्या उनके उच्चकोटि के विचारों और दृष्टकोण को समझने की योग्यता भी तुम में है?उदाहरणार्थ यदि किसी एम.ए.पास प्रोफैसर को दसवीं कक्षा के विद्यार्थियों को पढ़ाने पर नियुक्त कर दिया जाये, तो वे विद्यार्थी उसके व्याख्यान और उच्चविचारों को कब समझ सकते हैं?और यदि प्रोफैसर उनके साथ माथापच्ची करे तो आश्चर्य नहीं कि दो-चार दिन में ही परेशान होकर अपने काम से भी जाता रहे। प्राथमिक कक्षाओं के छात्रों को पढ़ाने के लिये मैट्रिक पासअध्यापक की आवश्यकताहै जो सिर पचा-पचा कर उनको पढ़ाया करेऔर एम.ए.पास अध्यापक बी.ए.अथवा एफ.ए.के छात्रों को पढ़ाने का कार्य कुशलता पूर्वक कर सकता है और इन कक्षाओं के छात्र उसके दृष्टिकोण और संकेतों को भली प्रकार समझ सकते हैं।इसी प्रकार अनाधिकारी द्वारा भी पूर्ण पुरुषों की खोज करना व्यर्थ है,क्योंकि यदि पूर्ण पुरुष मिल भी जायें तो वह न उनकी पहचान कर सकेगा और न उनकी शिक्षा पर उसको निश्चय आवेगा।इसलिये जिज्ञासु को चाहिये कि जो भी साधु-सन्त मिलें, उनसे श्रद्धा एवं आस्था सहित अत्यन्त प्रेम और उत्साह से मिले और उनकी सेवा तथा सत्कार करे,जैसा कि कथन हैः-
          तुलसी या संसार में, सबसे मिलिये धाय।।
          न जाने किस भेस में नारायण मिल जायें।।
 फरमाते हैं कि ऐ जिज्ञासु!यदि तुझे पूर्ण पुरुषों से मिलने की अभिलाषा है तो तू प्रत्येक साधू-सन्त सेश्रद्धासहित मिलऔर उनकी पवित्र संगति से लाभ उठा।शनैः शनैः जब तुझमें योग्यता उत्पन्न हो जायेगी, तब एक दिन तुझे पूर्ण महापुरुष जो कुल मालिक का साकार रूप होते हैं,अवश्यमेव मिल जायेंगे। जिज्ञासु को चाहिये कि प्रत्येक साधू-सन्त से मिले और उनका सतसंग करके अपने को अधिकारी बनाए और उनकी बताई हुई युक्ति पर श्रद्धा और विश्वास के साथ आचरण करे तथा उसकी कमाई करे।इस प्रकारआचरण करते रहने से जब वह अधिकारी बन जायेगा तो उसे एक दिन पूर्ण सन्त सदगुरु भी अवश्य मिल जायेंगे।
दाना डालना परिन्दों को शुरु कर दे।इक दिनआयेगा  हंस ज़रूर बन्दे।।
कहते हैं कि एक लड़का अपने पिता के साथ मेला देखने गया। मेले में प्रायः भीड़-भाड़ तो हुआ ही करती है, संयोग से वह लड़का उस भीड़ में अपने पिता से अलग हो गयाऔर लगाअपने पिता को ढूँढने।चूँकि उसके पिता ने सिर पर पीला साफा बाँध रखा था, इसलिये जो व्यक्ति भी पीला साफा बाँधे हुए दिखाई देता,उसी के पास दौड़ कर जाता,परन्तु पास जा कर जब उसे देखता तो अपने पिता को न पाकर उदास हो जाता। इतने पर भी उसने अपना प्रयास न छोड़ा और जिसके सिर पर पीला साफा देखता,उसी से दौड़ कर मिलता।अन्तः प्रयासऔर खोज करते-करते उसे अपना पिता भी मिल गया।इसी प्रकार साधू-महात्माओं से भी मिलते रहना चाहिये और उनसे जितना भी सत्संग का लाभ प्राप्त हो सके,प्राप्त कर लेना चाहिये। होते-होते एक दिन मनोकामना पूर्ण होगी और पूर्ण महापुरुषों के दर्शन भी हो जायेंगे।
       प्रिउ  प्रिउ  करती  सभु  जगु  फिरी मेरी  पिआस  न  जाइ।।
       नानक सतिगुरि मिलिए मेरी पिआस गई पिरु पाइया घिर आइ।।
मालिक के दर्शनऔर उसकी प्राप्ति की आशा को लेकर मैं स्थान स्थान पर फिरता रहा, परन्तु मेरी पिपासा शान्त न हुई श्री गुरुनानकदेव जी फरमाते हैं कि जब मुझे पूर्ण पुरुष सदगुरु देव जी मिले, तब मेरी तृषा शान्त हुई और मुझे अपने घट में ही गुरु-कुपा से मालिक  का दर्शन प्राप्त हुआ।

Friday, August 19, 2016

खुदा की अँगुली में अँगुठी पहना दो


        चूँ  तू  करदी  जाते मुर्शिद रा कबूल।।
        हम खुदा दर जातिस आमद दम रसूल।।(मौलाना रुम साहिब)
अर्थः-जब कि तूने मुर्शिदे कामिल को मान लिया है अर्थात उनकी शरण ले ली है तो विश्वास रख कि खुदा और रसूल उसी में आ गए। मुर्शिद की ज़ात से अलग उनकी कोई हस्ती नहीं। भाव यह है कि चूंकि आम संसारी लोग सच्चाई और रूहानियत से दूर होते है। उन्हें सच्चाई की खबर तो होती नहीं। इसी कारण सच कहने वाले पर एतराज़ करते हैं।
     मालेर कोटला(हरियाणा)का किस्सा है।कुछ दिनों पहले जिस समय वहां नवाब की हकूमत थी।एक बार उस शहर में एक फकीर साहिब ने एक सुनार से कहा-कि खुदा की उंगली में अंगूठी डाल दो और अपनी उँगलीआगे कर दी।संयोगवश वहां पर बहुत से मुसलमान खड़े थे,उनको यह बात बहुत बुरी लगी। यह काफिर है इसे पकड़ो और सजा दो। बात बढ़ते बढ़ते नौबत यहां तक पहुँची कि फकीर साहिब पकड़े गए।अदालत में मुकद्दमा पेश हुआ। मौलवी और काज़ियों ने अपनी सम्मति से फतवा दे दिया कि इसे फाँसी दे दी जाय।
     फकीर साहिब बेपरवाह थे।न जीने की खुशीऔर न मरने का गम। सूली का प्रबन्ध किया गया। पूछा गया कि कोई आखिरी खाहिश है? फकीर साहिब हँसे। कहने लगे अच्छा हम नवाब से मिलना चाहते हैं। जिसने फाँसी का हुक्म दिया है।नवाब के समक्ष उसे लाया गया। फकीर साहिब ने प्रश्न किया यह दुनियाँ किस की है? नवाब साहिब ने जवाब दिया खुदा की।फकीर साहिब-""मुल्क व दौलत-माल वगैरा किसका है? ''नवाब साहिब-""खुदा का''फकीर साहिब-'' इन सब इन्सानों को किसने बनाया?''नवाब-''खुदा ने''फकीर साहिब-""यह सब किसके हुए।''नवाब-खुदा के।फकीर साहिब -यह सब जिस्म व जान किसकी हुई।'' नवाब-""खुदा की। फकीर साहिब-""जानता है तू किसका है।'' नवाब ने कहा-खुदा का। तेरीआँख,तेरा हाथ आदि किसके हैं?खुदा का। फकीर साहिब इसी तरह हरेक चीज़ हाथ,पैर कान,आँख आदि का नाम लेकर सब की बाबत प्रश्न करते रहे। नवाब जवाब देते देते थक गया।और उन्हें क्रोध आ गया।पूछा, आप क्या चाहते हैं। फकीर साहिब ने हँस कर फरमाया गज़ब करते हो जब कि यह सब कायनात खुदा की है, तुम्हारा जिस्म खुदा का है और जिस्म का एक एक अंग खुदा का ठहरा तो क्या ये बेचारी उंगली खुदा की नहीं?नवाब साहिब के होश ठिकाने हुए। मौलवी और काजी सब दंग रह गए। तुरन्त पहला हुक्म मंसूल करके रिहाई का हुक्म सुनाया गया।
इस सबका भाव और सारांश यह है कि भगवंत का अर्थ पूर्ण गुरु से है। दूसरे शब्दों में रूहानियत के सब संतसत्पुरुषों का भी यहीफरमान है कि परिपूर्ण संत सतगुरु ही साक्षात  पूर्णब्राहृ भगवंत का स्वरुप हैं और परि पूर्ण संतसदगुरु का सच्चा भक्त ही वास्तव में भगवंत का सच्चा भक्त है।

Tuesday, August 16, 2016

नाम बेड़ी सन्त मल्लाह


          नाम बेड़ी सन्त मल्लाह। पार लगावें ख्वाहमखाह।।
     एक सुबह, एक घुड़सवार एक रेगिस्तानी रास्ते से निकल रहा था। एकआदमी सोया हुआ हैऔर उस घुड़सवार ने देखा,उस आदमी का मुंह खुला हुआ हैऔर एक छोटा सा साँप उसके मुँह में चला गया।वह घुड़- सवार उतरा। उसके पीछे उसके दो साथी थे। उनको उसने बुलाया। उस आदमी को उठायाऔर ज़बरदस्ती उसे घसीटकर पास ही नदी के किनारे ले गये और ज़बरदस्ती उन तीन चार लोगों ने उसे पानी पिलाना शुरु किया। वह आदमी चिल्लाने लगा,क्या तुम मनुष्यता के शत्रु हो,तुम क्यों मुझे पानी पिला रहे हो?तुम क्यों मुझे परेशान कर रहे हो?क्याज़बरदस्ती है यह?लेकिन उन्होंने बिल्कुल भी नहीं सुना। वे ज़बरदस्ती पानी पिलाते गये।वह नहीं पीने को राज़ी हुआ,तो उन्होंने धमकी दी कि वे उसे कोड़ों से मारेंगे। उस गरीब आदमी को ज़बरदस्ती पानी पीना पड़ा।लेकिन वह पानी पीता गयाऔर चिल्लाता गया, विरोध करता गया कि तुम क्या कर रहे हो? मुझे पानी नहीं पीना है। जब बहुत पानी वह पी गया, तो उसे उल्टी हो गयी और उस पानी के साथ वह छोटा सा साँप भी बाहर निकला। तब तो वह हैरान रह गया।वह आदमी कहने लगा कि तुमने पहले क्यों न कहा?मैं खुद ही अपनी मर्ज़ी से पानी पी लेता। उस घुड़- सवार ने कहा,मुझे जीवन का अनुभव है पहली बात, अगर मैं तुमसे कहता कि सांप तुम्हारे मुंह में चला गया है। तो तुम हँसते और कहते, क्या मज़ाक करते हैं। सांप और कही मुंह में जा सकता है?दूसरी बात, अगर तुम विश्वास कर लेते, तो यह भी हो सकता था कि तुम इतना
घबड़ा जाते कि तुम बेहोश हो जाते।और तुम्हें बचाना मुश्किल हो जाता।तीसरी बात,यह भी हो सकता था कि तुम पानी भी पीने को राज़ी होते,तो हमारे समझाने बुझाने में इतनी देर लग जाती कि फिर उस पानी पीने का कोई अर्थ न रहता। मुझे क्षमा करना, उस घुड़सवार ने कहा, मज़बूरी में हमें तुम्हारे साथ जोर करना पड़ा।उसके लिए क्षमा कर देना। लेकिन वह आदमी धन्यवाद देने लगा हज़ार हज़ार धन्यवाद देने लगा। यही आदमी थोड़ी देर पहले चिल्ला रहा था कि क्या तुम आदमियत के शत्रु हो, तुम यह क्या कर रहे हो? एक अन्जान आदमी के साथ यह क्या ज़बरदस्ती हो रही है। अब वह हज़ार हज़ार धन्यवाद दे रहा है।


Thursday, August 11, 2016

संत सेवा हेतु सब कुछ कुर्बान


एक बार बारिश के मौसम में कुछ साधू-महात्मा अचानक कबीर जी के घर आ गए , बारिश के कारण कबीर साहिब जी बाज़ार में कपडा बेचने नही जा सके, ओर घर पर खाना भी काफी नही था , उन्होंने अपनी पत्नी लोई से पूछा , " क्या कोई दुकानदार कुछ आटा -दाल हमें उधार दे देगा , जिसे हम बाद में कपडा बेचकर चूका देगे " पर एक गरीब जुलाहे को भला कौन उधार देता जिसकी कोई अपनी निशिचत आय भी नही थी। लोई कुछ दुकानदार पर सामान लेने गई पर सभी ने नकद पैसे मांगे। आखिर एक दुकानदार ने उधार देने के लिए उसके सामने एक शर्त रखी, वह एक रात उसके साथ बिताएगी, इस शर्त पर लोई को बहुत बुरा तो लगा, लेकिन वह खामोश रही,,, जितना आटा-दाल उन्हें चाहिए था, दुकानदार ने दे दिया, जल्दी से घर आकर लोई ने खाना बनाया , ओर जो दुकानदार से बात हुई थी कबीर साहिब को बता दी ,, रात होने पर कबीर साहिब ने लोई से कहा की दुकानदार का क़र्ज़ चुकाने का समय आ गया है , साथ में यह भी कहा की चिंता मत करना , सब ठीक हो जाएगा, जब वह तैयार हो कर जाने लगी, कबीर जी बोले क़ि बारिश हो रही है ओर गली कीचड़ से भरी है , तुम कम्बल ओढ़ लो , मै तुमे कंधे पर उठाकर ले चलता हू,,, जब दोनों दुकानदार के घर पर पहुचे , लोई अन्दर चली ओर कबीर जी दरवाजे के बाहर उसका इंतज़ार करने लगे,,, लोई को देखकर दुकानदार बहुत खुश हुआ ,,, पर जब उसने देखा की बारिश के बावजूद न लोई के कपडे भीगे है ओर ना पाँव , तो उसे बहुत हैरानी हुई , उसने पूछा " यह क्या बात है क़ि कीचड़ से भरी गली में से तुम आई हो , फिर भी तुमारे पावो पर कीचड़ का एक दाग भी नही , तब लोई ने जवाब दिया " इसमें हैरानी की कोई बात नही , मेरे पति मुझे कम्बल ओढा कर अपने कंधे पर बिठाकर यहाँ पर लाये है ... यह सुनकर दूकानदार बहुत दंग रह गया, लोई का निर्मल ओर निष्पाप चेहरा देखकर वह बहुत प्रभावित हुआ और अविश्वास से उसे देखता रहा, जब लोई ने कहा की उसे पति कबीर साहिब जी वापस ले जाने के लिए बाहर इंतज़ार कर रहे है तो दुकानदार को अपनी नीचता ओर कबीर साहिब जी की महानता को देख-देख कर शर्म से पानी-पानी हो गया , उसने लोई ओर कबीर साहिब जी से दोनों घुटने टेक कर क्षमा मांगी , कबीर साहिब जे ने उसको क्षमा कर दिया ओर दुकानदार , कबीर जी के दिखाए हुए मार्ग पर चल पड़ा जोकि था परमार्थ का मार्ग, ओर समय के साथ उनके प्रेमी भक्तो में गिना जाना लगा, भटके हुए जीवो को सही रास्ते पर लाने के लिए संतो के अपने ही तरीके होते है ,

" संत ने छोड़े संतई चाहे कोटिक मिले असंत ,
चन्दन विष व्यामत नही लिपटे रहत भुजंग "

पूर्ण संत हर काल में हर किसी की के मन की मैल ओर विकारो को प्रभु का ज्ञान करवाकर प्रभु की कृपादर्ष्टि का पार्थ बनाता है ...

Saturday, August 6, 2016

महात्मा जी से चिलम माँगी


     एक महात्मा जो शान्त,गम्भीर स्वभाव के थे, किसी बन में एकान्त कुटिया बनाकर रहते थे।मनुष्य में यदि सद्गुण हों,तो उसकी ख्याति फैल ही जाती है। इन महात्मा के सम्बन्ध में भी धीरे धीरे यह बात दूर दूर तक फैल गई कि आपने क्रोध को जीत लिया है, शान्त शीतल स्वभाव रखते हैं तथा क्षमा और नम्रता आपमें कूट कूट कर भरी है। बहुत से लोग ऐसे होते हैं,जो औरों की प्रशंसाऔर बड़ाई सहन नहीं कर सकते। इसी प्रकार के कुछ लोगों मे यह ठहरी कि इन महात्मा को क्रोध दिलाया जाये।अति उदण्ड प्रकृति के दो व्यक्तियों ने इस बात का बीड़ा उठाया। वे दोनों महात्मा जी की कुटिया पर आये।
     एक ने आते ही कहा,"'महाराज!ज़रा गाँजे की चिलम तो दीजिये।'' महात्मा जी ने नम्र स्वर में उत्तर दिया,"'भाई!हम न गाँजा पीते हैं, न रखते हैं।''तब दूसरा व्यक्ति बोला,""अच्छा!तो तम्बाकू ही पिलवा दीजे।'' महात्मा जी ने कहा,"'हमने तम्बाकू भी कभी इस्तेमाल नहीं किया।'' पहले व्यक्ति ने कहा,""तब तुम साधू होकर जंगल में बैठे क्या करते हो, जबकि तुम्हारे पास न गाँजा है, न चिलम?''
     महात्मा जी सुनकर मौन रहे।परन्तु उधर मौन रहने वाले कहाँ थे? वे तो निश्चय ही करके आये थे कि महात्मा को क्रोध  दिलाना है, इतने में ही वे सब तमाशबीन लोग,जिन्होंने इन्हें यहाँ भेजा था,वे भी इधर उधर से आकर वहाँ एकत्र हो गये,उनके आ जाने पर इन दोनों में से एक ने सब को सुना सुनाकर महात्मा जी पर अनेक मिथ्या दोषारोपण किये। दूसरा भी मौन न रहा। दोनों का अभिप्राय यही था कि किसी प्रकार महात्मा जी को क्रोध आये। परन्तु महात्मा जी पर उनकी इन वाहियात बातों का कुछ भी प्रभाव न पड़ सका और वे पूर्ववत् मौन रह कर सब कुछ सुनते रहे।जब दोनों के द्वारा गालियों के कठोर पत्थर फैंके जाने पर भी उधर से एक तिनका भी फेंका जाता न दिखाई दिया, तो वे दोनों भी थककर मौन हो रहे।अब महात्मा जी अपने स्थान से उठे और शान्त भाव से हँसकर बोले,"'कल ही एक भक्त  शक्कर की एक पुड़िया हमारी भेंट कर गया था। यह लो और इसे जल में घोलकर पी लो, जिससे तुम्हें कुछ शान्ति मिले। तुम लोग बहुत थक गये हो।''
    बुराई के बदले में महात्मा जी का ऐसा सद्व्यवहार देखकर वे दोंनों मारे लज्जा के गड़ से गये। उन्होंने महात्मा जी के चरणों में सर टेक दिया औरअपने अपराध की क्षमा मांगने लगे।और जब महात्मा जी ने हँसकर उन दोनों को क्षमा कर दिया,तो उन्होने पूछा,""महाराज! हमारे इतना कुछ अपशब्द कहने पर भीआपको क्रोध क्यों नहीं आया? महात्मा जी ने उसी प्रकार स्मित-हास्य-पूर्वक उत्तर दिया,""भैय्या!जिसके पास जो भी जिन्स होती है,वह उसी का ढिंढोरा पीटता है और दूसरों को भी वही माल पेश कर सकता है।तुम्हारे पास जो जिन्स थी,वह तुमने हमें दिखला दी। अब हमारे पास जो माल है,बस हम तम्हें पेश कर रहे हैं। तुम्हारी जिन्स तुम्हारे लिये अच्छी हो तो  हो, हमें वह नापसन्द है, इसलिये हमने लौटा दी।'' यह सुनकर दोनों और भी लज्जित हुए और एक बार फिर उन्होने महात्मा जी के चरण  पकड़ कर क्षमा-याचना की। तब महात्मा जी ने कहा,"" सुनो! गलती कोई अऩ्य व्यक्ति करे और हम व्यर्थ अपने मन में आग जला लें, भला यह कहाँ उचित है?क्रोध तो भयानक आग है। यदि तुम्हारे बुरा व्यवहार से हम अपने ह्मदय में आग जला लें, तो अपना ह्मदय ही जलेगा। किसी अन्य का इसमें क्या जावेगा,हमें तो सच्चे गुरु ने यह शिक्षा दी है कि क्रोध करनाऔर अपने तन में छुरा घोंप लेना एक बराबर है। औरों से ईष्र्या करनाऔर विष के घूँट पीना एक ही बात है। दूसरों को गाली देना अपने आपको गाली देना है। किसी के भी दुव्र्यवहारअथवा गालियों से हमारा बिगड़ता ही क्या है,जो हम वृथा क्रोध करें?''उन लोगों ने भी क्रोध तथा दुव्र्यहार से तौबा करली,जिससे उनके जीवन सुधर गये।

Tuesday, August 2, 2016

शेख सादी साहिब धन चोर ले गये


शेख सादी साहिबअपने समय में माने हुए व्यक्ति थे। फकीरों साधु-सन्तों की संगति से उन्होंने सन्तोष रूपी शिक्षा को दृढ़ता से पल्ले बाँध लिया। भगवान की कृपा से घर में धन-माल सब कुछ था परन्तु इसके लिये उन्हें अहंकार नहीं था।कोई सम्बन्धी कहता कि मियाँ!इतना क्या करोगे? उत्तर देते कि जिसका है वही सम्भाल लेगा मुझे क्या चिन्ता? शेख सादी साहिब तोअपनी मस्ती में मस्तदुनियाँ का कार्य-व्यवहार करके हुएफकीरों की संगति में समय व्यतीत करते हुए जीवन का लाभ ले रहे थे।
     कुछ समय बीता।कुछ धन सन्तों की सेवा-टहल में खर्च कर दिया और शेष को चोर चुराकर ले गए। किसी मित्र ने कहा-मियाँ! अब कैसे बसर होगा?उत्तर मिला कि जैसे पहले था वैसे अब हूँ,मेरा धन तो कहीं नहीं गया।उसीअनुरूप ही फकीरों की सेवा टहल जो पहले धन से करते थे अब तन से करने लगे। इसी पर सन्तोष था कि ऊँट तो उनके पास है जिससे आने जाने में असुविधा नहीं थी।
          जो कुंजे कनाअत में है तकदीर पर शाकिर।
          है जौक  बराबर  उन्हें कम और जियादा।।
जो सन्तोषी है,वे भाग्य पर भरोसा रखते हैं। उन्हें कम और ज्यादा सभी बराबर है।उन्हें जो मिलजाए उसी पर सब्रा करते हैं। एक बार यह घटना घटित हुई कि एक सौदागर ऊँटों पर कुछ लादकर ले जा रहा था। उसने अपना धन माल सुरक्षा की दृष्टि से एक बहुत ही बूढ़े लद्दू ऊँट पर लाद दियाऔर उस पर टूटी-फूटी काठी रख दी और उस काठी में अशर्फियों की थैली रख दी। ऐसा उसने इसलिये किया ताकि बूढ़े ऊँट पर किसी की दृष्टि न पड़े।वह सौदागर जंगल से गुज़र रहा था कि अकस्मात् युद्ध में शत्रु से लूटा माल लेकर कुछ लोगआ रहे थे, उन्होंने सौदागर से सब ऊंट व माल छीन लिए।उनमें वह बूढ़ा ऊँट भी था।सभी सरदार अन्य ऊंटों पर सवार हो गएऔर एक सरदार अभी कुछ दूर बूढ़े ऊँट पर जा ही रहा था कि उधर से शेख सादिसाहिबअपने ऊंट पर सवार मिल गए। वह ऊँट भी अच्छा था और काठी भी नई थी।सरदार ने""आव न देखा ताव''बूढ़े ऊंट से उतर कर शेख सादि साहिब के अच्छे ऊँट को छीन लियाऔरअपना बूढ़ा ऊंट उन्हें दे दिया और कहा कि चल बैठ इस ऊंट परऔर चला जा।वह सरदार शेख सादि साहिब के ऊँट को लेकर चला गया। शेख सादिसाहिब बूढ़े ऊँट को लेकरअपने घर आ गए।और कहने लगे किअच्छा हुआ परमात्मा ने अब इसकी सेवा टहल करने को दिया है।ज्यों ही ऊंट से काठी उतारकर एकओर रखने लगे कि झनझनाती स्वर्ण मोहरें थैली में से गिर पड़ींऔर ऊंट से चीथड़ों की कमानी उतारी तो ढेर धन उसमें छिपा पाया।उन्होने आकाश की ओर देखकर कहा-वाह भगवान!सच है,जिसे देता है छप्पर फाड़कर देता है।और मुझे थप्पड़ खा कर ज़बरदस्ती लेना पड़ा।भगवान जो कुछ करता हैअच्छाही करता है।