Wednesday, July 20, 2016

भक्तिवान के लिए सांसारिक धन कंकण पत्थर समान

कमाल साहिब परम संत श्री कबीर साहिब जी के गुरुमुख चेले थे और नाम भक्ति की सच्ची व सार सम्पदा से मालोमाल था। उनकी ख्याति सुनकर काशी नरेश ने उनकी परीक्षा लेने का विचार किया। वे एक अत्यंत मूल्यवान हीरा लेकर कमाल साहिब के पास गए और चरणों में हीरा रखते हुए कहा –‘मेरी ओर से यह तुच्छ भेंट स्वीकार करो।’ कमाल साहिब ने कहा कि मैं इस पत्थर के टुकड़े को लेकर क्या करूँगा? काशी नरेश बोले यह पत्थर नहीं बहुमूल्य हीरा है। इसे रख लीजिये, काम आएगा। कमाल साहिब ने हँसते हुए कहा –‘ऐसे कंकड़-पत्थर हजारो की संख्या में इधर उधर बिखरे पड़े है। क्या मैं अब भजन छोडकर उन पत्थरों को बटोरना शुरू कर दूँ?’ काशी नरेश फिर भी जिद्द पर अड़े रहे और बोले- ‘यह हीरा मैं आपकी झोपडी में रख जाता हूँ, आवश्यकता पड़ने पर आप इसे उपयोग में ला सकते हो।’ यह कहकर काशी नरेश ने वह हीरा उनके सामने ही झोपडी में रख दिया और वापिस चले गए। काफी समय के बाद वे फिर कमाल साहिब के चरणों में उपस्थित हुए और उनसे हीरे के विषय में पूछा। कमाल साहिब ने कहा-‘कौन सा हीरा?’ काशी नरेश ने कहा-‘वही हीरा जो मैं आपकी कुटिया में रख गया था।’ कमाल साहिब ने कहा –‘मुझे तो कुछ याद नहीं है जहाँ रखा हो वही से उठा लो।’ काशी नरेश ने देखा तो हीरा वहीँ पर वैसा का वैसा पड़ा हुआ था। हीरे को देखकर काशी नरेश को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने हीरा कमाल साहिब के समक्ष रखते हुए कहा –‘मैं इस हीरे की बात कर रहा हूँ। इसका मूल्य कई लाख है।’ कमाल साहिब हँसते हुए बोले –‘कमाल है। अभी भी आप वही गलती कर रहे है और इस पत्थर को हीरा कह रहे है।’ काशी नरेश समझ गए कि कमाल साहिब की दृष्टी में संसारिक धन-पदार्थ सब तुच्छ है। वे उनके चरणों में नतमस्तक हो गए। इसी प्रकार भक्तिमयी रबिया संसारिक दृष्टी से यधपि अत्यंत ही निर्धन थी, परन्तु नाम-भक्ति के सच्चे धन से मालोमाल थी। एक दिन एक धनवान व्यक्ति जिसके मन में रबिया के लिये बड़ा सम्मान था उसके पास आया। वह ऊंट पर सोने की मोहरे बांधके लाया था, जिनका मूल्य हजारो रुपए था। उसने वे स्वर्ण मुद्राएँ उसके सामने रखते हुए कहा कि मेरी ओर से यह तुच्छ भेंट स्वीकार कीजिये।
रबिया ने कहा –‘मैं इनका क्या करुँगी?’ उस व्यक्ति ने कहा कि आप प्रभु की भक्त है इसलिए मैं आपका बहुत आदर करता हूँ। आप इतनी निर्धनता में दिन गुजारे और फटे वस्त्र पहने ये मुझे सहन  नहीं होता। इसलिए मेरी ओर से ये तुच्छ भेंट स्वीकार करनी ही होगी।
राबिया ने कहा –‘मैं इन कंकडो को कहाँ संभालती फिरुंगी? उचित यही है कि आप इन्हें वापिस ले जाओ।’ उस व्यक्ति ने बहुत आग्रह किया, परन्तु रबिया किसी तरह भी वह धन न लेने को राजी हुई। वह व्यक्ति मन ही मन विचार करना लगा कि रबिया के पास ऐसे कौन सी मुद्राए है जिसके कारण ये इन स्वर्ण-मुद्राओ को पत्थरों से अधिक महत्व नही देती? वही वस्तु प्राप्त करने का मुझे यत्न करना चाहिए। यह विचार कर उसने अपना सारा धन दींन दुखियो में बाँट दिया और रबिया के सम्मुख उपस्थित होकर कहा ‘जिस वस्तु के कारण आप स्वर्ण मुद्राओ को पत्थर समझते है, मुझे भी वह प्रदान कीजिये।’ रबिया ने उसे प्रशिद्ध फ़कीर हसन बंसरी के पास जाने का परामर्श दिया। रबिया के परामर्श के अनुसार बंसरी का शिष्यत्व ग्रहण किया। उसकी कृपा से वह भक्ति के सच्चे धन से मालोमाल हो गया। 

No comments:

Post a Comment