Friday, September 2, 2016

मेरी हालत खुद देख लो


प्रतीक्षा करो।इसका अर्थ यह नहीं है कि, प्यासे मत बनो। प्यास तो तीव्र हो, प्रतीक्षा अनंत हो। प्यास तो ऐसी हो, जैसे अभी चाहते हो और प्रतीक्षा ऐसी हो कि जैसे कभी भी मिलेगा, तो भी जल्दी है। ये दो गुण तुम्हारी जीवन-धारा में जुड़ने चाहियें। सूफी फकीर बायज़ीद अपने शिष्यों से कहा करता था, कि हर काम ऐसे करो, जैसे यह आखिरी दिन है। आलस्य का उपाय नहीं है। यह सूर्यास्त आखिरी सूर्यास्त है। अब कोई सूर्योदय नहीं होगा। कोई कल नहीं है, बस आज सब समाप्त है। और हर काम ऐसे भी करो कि जीवन अनंतकाल तक चलेगा। कोई जल्दी नहीं है। बड़ा विरोधाभास है। ये तुम दोनों बात एक साथ कैसे साध सकोगे। ये साधी जाती हैं। ये सध जाती हैं। और जिस दिन ये सधती है, तुम्हारे भीतर एक ऐसा अपूर्व संगीत जन्मता है, जिसमें प्यास तो प्रबल होती है, प्रतीक्षा भी उतनी ही प्रबल होती है। प्यास तो तुम्हारी होती है, तुम जलते हो, आग की लपट बन जाते हो, व्याकुलता गहन होती है। यह तुम्हारी दशा है, लेकिन इस कारण तुम परमात्मा से यह नहीं कहते कि तू अभी मिल। तुम परमात्मा से कहते हो, यह प्यास मेरी है, मैं जलूँगा, लेकिन मैं राज़ी हूँ, जब तुझे मिलना हो, तेरी सुविधा से मिल। मैं द्वार पर बैठा रहूँगा। मैं दस्तक भी न दूँगा। मैं प्यासा रहूँगा। मेरी प्यास एक अग्नि बन जायेगी अगर वही मेरे द्वार दस्तक बन जाये तो पर्याप्त है, लेकिन मैं और जल्दी न करूंगा। यह भक्ति का रसायन है। यह भक्ति का पूरा शास्त्र है कि तुम माँगो भी और जल्दी भी न करो। प्रार्थना भी हो, और होंठ पर माँग भी नआये।
     बायजीद जब प्रार्थना करता था, तो कभी उसके होंठ न हिलते थे। शिष्यों ने पूछा, हम प्रार्थना करते हैं, कुछ कहते हैं, तो होंठ हिलते हैं आपके होंठ नहीं हिलते? आप पत्थर की मूर्ति की तरह खड़े हो जाते हैं। आप कहते क्या हैं भीतर? क्योंकि भीतर भी आप कुछ कहेंगे, तो होंठ पर थोड़ा कंपन आ जाता है। चेहरे पर बोलने का भाव आ जाता है, लेकिन वह भाव भी नहीं आता। बायजीद ने कहा, कि मैं एक बार एक राजधानी से गुज़रता था, और एक राजमहल के सामने सम्राट के द्वार पर मैंने एक सम्राट को भी खड़े देखा, और एक भिखारी को भी खड़े देखा। वह भिखारी बस खड़ा था। फटे-चीथड़े थे शरीर पर। शरीर ढंका नहीं है उन कपड़ों से। उससे तो नंगा भी होता तो भी ज्यादा ढंका होता। पेट सिकुड़कर पीठ मेे लग गया है, हड्डियाँ निकल आयी हैं, आँखें धंस गयी हैं। जीर्ण-जर्रजर्र देह थी, जैसे बहुत दिन से भोजन न मिला हो। शरीर सूख कर काँटा हो गया। बस आँखें  ही दीयों की तरह जगमगा रही  थीं। बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो। वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था। लगता था अब गिरा-अब गिरा! सम्राट उससे बोला कि बोलो क्या चाहते हो? उस फकीर ने कहा, अगर मेरे, आपके द्वार पर खड़े होने से, मेरी माँग का पता नहीं चलता, अगर मुझे देखकर तुम्हें दया नहीं आती तो मेरी बात सुनकर भी क्या फर्क पड़ेगा। तो कहने की कोई ज़रूरत नहीं। क्या कहना है और? मैं द्वार पर खड़ा हूँ, मुझे देख लो। मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है। बायजीद ने कहा, उसी दिन से मैंने प्रार्थना बन्द कर दी। मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूँ। वह देख लेगा। मैं क्या कहूँ? और अगर मेरी स्थिति कुछ नहीं कह सकती, तो मेरे शब्द क्या कह सकेंगे? और अगर वह मेरी स्थिति नहीं समझ सकता, तो मेरे शब्दों को क्या समझेगा।
      लबे-इज़हार की ज़रूरत क्या। आप हूँ अपने दर्द की फरियाद। ।
भक्त जलता है। बड़ी गहन पीड़ा है उसकी। गहनतम पीड़ा है भक्ति की। उससे बड़ी कोई  पीड़ा नहीं। और मिठास भी बड़ी है उस पीड़ा में, क्योंकि वह एक मीठा दर्द है, और परम प्रतीक्षा भी है उसमें। भक्त रुक सकता है, अनंतकाल तक रुक सकता है। और जिस दिन तुम अनंतकाल तक रुकने को तैयार हो, उसी दिन उसी शान्ति में द्वार खुलता है। प्रकृति बड़ी शांति से बहती है। फूल जल्दी नहीं करते। वृक्ष जल्दी नहीं पकते-रुकते हैं, राह देखते हैं चांद-तारे भागते नहीं, अपनी गती को स्थिर रखते हैं।

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