Friday, October 14, 2016

दुःखों की गठरियां


एक यहूदी फकीर हुआ। वह फकीरअपने दुःखों से बहुत परेशान हो गया है। कौन परेशान नहीं हो जाता है? हम सब अपने दुःखों से परेशान हैं। और हमारे दुःख की परेशानी में सबसे बड़ी परेशानी दूसरों के सुख हैं। दूसरे सुखी दिखाई पड़ते हैं और हम दुःखी होते चले जाते हैं।हम सोचते हैं कि सारी दुनियाँ सुखी है,एक मैं ही दुःखी हूँ। उस फकीर को भी ऐसा ही हुआ। उसने एक दिन रात परमात्मा को कहा कि मैं तुझसे यह नहीं कहता कि मुझे दुःख न दे, क्योंकि अगर मैं दुःख देने योग्य हूँ तो मुझे दुःख मिलेगा ही, लेकिन इतनी प्रार्थना तो कर सकता हूँ कि इतना ज्यादा मत दे। दुनियां में सब लोग हँसते दिखाई पड़ते हैं, लेकिन मैं भर एक रोता हुआ आदमी हूँ। सब खुश नज़र आते हैं एक मैं ही उदास,अंधेरे में खो गया हूं। आखिर मैने तेरा क्या बिगाड़ा है? एक कृपा कर,मुझे किसी भी दूसरे आदमी का दुःख दे दे और मेरा दुःख उसे दे दे, बदल दे किसी से भी, तो भी मैं राज़ी हो जाऊँगा।
     रात वह सोया और उसने एक सपना देखा। एक बहुत बड़ा भवन है और उस भवन में लाखों खूंटियां लगी है। और लाखों लोग चले आ रहे हैं। और प्रत्येक आदमी अपनी अपनी पीठ पर दुःखों की एक गठरी बांधे हुए है। दुखों की गठरी देखकर वह बहुत डर गया,क्योंकि उसे बड़ी हैरानी मालूम पड़ी। जितनी उसकी गठरी है दुखों की-वह भीअपनी दुःखों की गठरी टांगे हुए है-सबके दुःखों की गठरियों का जो आकार है,वह बिलकुल बराबर है। मगर बड़ा हैरान हुआ। यह पड़ोसी तो उसका रोज मुस्कुराता दिखता था।औरसुबह जब उससे पूछता था कि कहो कैसे हाल हैं, तो वह कहता था कि बड़ा आनन्द है,ओ के,सब ठीक है।यह आदमी भी इतने ही दुःखों का बोझ लिये चला आ रहा है। उसमें नेता भी उतना ही बोझ लिये हुए हैं।अनुयायी भी उतना ही बोझ लिये हुए हैं।उसमें सभी उतना बोझ लिये हुए चले आ रहे हैं। ज्ञानी और अज्ञानी,अमीर और गरीब,और बीमार और स्वस्थ,सबके बोझ की गठरी बराबर है।
     आज पहली दफा गठरियां दिखाई पड़ीं। अब तक तो चेहरे दिखाई पड़ते थे। फिर उस भवन में एक जोर की आवाज़ गूँजी कि सब लोग अपने अपने दुःखों को खूंटियों पर टांग दें। इसने भी जल्दी से अपना दुःख खूंटी पर टांग दिया। सारे लोगों ने जल्दी की है अपना दुःख टांगने की। कोई एक क्षण अपने दुःख को अपने ऊपर रखना नहीं चाहता। टांगने का मौका मिले,तो हम जल्दी से टांग ही देंगे।और तभी एक दूसरी
आवाज़ गूँजी किअब जिसने जिसकी गठरी चुनना हो वह चुन ले तो हम सोचेंगे कि उस फकीर ने जल्दी से किसी और की गठरी चुन ली होगी। नहीं, ऐसी भूल उसने नहीं की। वह भागा घबरा कर अपनी ही गठरी को उठाने के लिए कि कहीं और कोई पहले न उठा ले,अन्यथा मुश्किल में पड़ जाये,क्योंकि गठरियां सब बराबर थीं। अब उसने सोचा कि अपनी गठरी ही ठीक है,कम से कम परिचित दुःख तो हैं उसके भीतर।दूसरे की गठरियों के भीतर पता नही कौन से अपरिचित दुःख हैं। परिचित दुःख फिर भी कम दुःख है-जाना-माना,पहचाना। घबराहट में दौड़कर अपनी गठरी उठा ली कि कोई और दूसरा मेरी न उठा ले। लेकिन जब उसने घबराहट में उठाकर चारों तरफ देखा तो उसने देखा कि सारे लोगों ने दौड़कर अपनी ही उठा ली है, किसी ने भी किसी की नहीं उठाई।उसने पूछा कि इतनी जल्दी क्यों कर रहे हो अपनी उठाने की?तो उन्होने कहा कि हम डर गए। अब तक हम यही सोचते थे कि सारे लोग सुखी हैं,हम ही दुःखी हैं।उसने जिससे पूछा उस भवन में,उसने यही कहा कि हम यही सोचते थे कि सारे लोग सुखी हैं। हम तो तुम्हें भी सुखी समझते थे, तुम भी तो रास्ते पर मुस्कुराते हुए निकलते थे। हमने कभी सोचा न था कि तुम्हारे भीतर भी इतनी गठरियों के दुःख हैं। उस फकीर ने पूछा,अपने-अपने क्यों उठा लिए,बदल क्यों न लिए? उन्होने कहा हम सबने प्रार्थना की थी भगवान से आज रात कि हम अपनी गठरियां बदलना चाहते हैं दुःखों की।मगर हम डर गए। हमें ख्याल भी न था कि सब के दुःख बराबर हो सकते हैं। फिर हमने सोचा अपनी ही उठा लेना अच्छा है। पहचान का है, परिचित है।और नए दुःखों में कौन पड़े। पुराने दुःख धीरे धीरे हम आदी भी तो हो जाते है उनके।
    उस रात किसी ने भी किसी की गठरी न चुनी। फकीर की नींद टूट गई। उसने भगवान को धन्यवाद दिया कि तेरी बड़ी कृपा है कि मेरा ही दुःख मुझे वापिस मिल गया।अब मैं कभी ऐसी प्रार्थना न करूँगा।

No comments:

Post a Comment