Tuesday, June 7, 2016

नि:स्वार्थ लोक सेवा के बल पर संत को मिला स्वर्ग


एक संत थे, जो दुनिया से बेखबर, अपने भगवद्-भजन में लीन रहते और किसी से कोई सरोकार नहीं रखते थे। वृद्धावस्था में एक दिन वे मृत्यु को प्राप्त हुए। मरने के पश्चात संत स्वर्गलोक पहुंचे। स्वर्गलोक के द्वार पर चित्रगुप्त अपना हिसाब-किताब लेकर बैठे थे। उन्होंने साधु का नाम-पता पूछा। तब साधु ने बड़े गर्व से कहा - क्या आप नहीं जानते कि मैं धरती का अमुक संत हूं?

चित्रगुप्त ने प्रश्न किया - आपने अपने जीवन में कौन-से उल्लेखनीय कार्य किए? संत ने उत्तर दिया - मैं जीवन के आरंभिक आधे भाग में तो लोगों से प्रेम करता रहा और दुनियादारी में डूबा रहा। जीवन के अंतिम आधे भाग में मैंने सब कुछ छोड़कर तपस्या की और पुण्य लाभ लिया। यह सुनकर चित्रगुप्त बोले - आपसे जीवन के आरंभिक भाग में ही पुण्य हुए हैं, पिछले भाग में तो कुछ भी नहीं है।

संत ने कहा - यह तो उल्टी बात है। आरंभिक जीवन तो मैंने संसार से प्रेम करने में बिताया। यथासंभव सभी की सेवा और सहायता की, किंतु जीवन के अंतिम भाग में सांसारिकता से परे रहकर एकांत में परमात्मा की आराधना की, तो वही तो जीवन की सार्थकता है।

तब चित्रगुप्त बोले - धरती पर प्रेम, आत्मीयता और परहित में लगे रहना ही पुण्य है। ईश-पूजा और मानव सेवा के कारण ही तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई है। वस्तुत: नि:स्वार्थ जनसेवा ही सच्चे अर्थो में प्रभुसेवा है, क्योंकि यह दुनिया प्रभु की बनाई हुई है। इसलिए इसके प्रति समर्पित व्यक्ति निश्चित रूप से प्रभु को प्रिय होता है।

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