Friday, March 11, 2016

कार्य

फैक्टरी के प्रबन्धक बड़े ही भद्र पुरुष थेऔर फैक्टरी में काम करने वाले कर्मचारियों से अत्यन्त प्रेम का व्यवहार करते थे। एक दिन उन्होने एक लिपिक को अपने साथी से यह कहते हुये सुना कि हमारा जीवन भी कोई जीवन है, बस हर समय काम-काम-काम। ज्ञात होता है कि आराम हमारे भाग्य में ही नहीं है। काम करते-करते ही हमारे जीवन का अन्त हो जायेगा। प्रबन्धक महोदय ने उस समय तो उससे कुछ न कहा, परन्तु उसे शिक्षा देने का मन ही मन निर्णय कर लिया। दूसरे दिन जैसे ही वह लिपिक कार्यालय में पहुँचा,उसे सूचना मिली कि प्रबन्धक महोदय ने तुम्हें अपने कमरे में बुलवाया है।सूचना पाकर वह प्रबन्धक महोदय के कमरे की ओर चला गया। द्वार पर पहुँचकर उसने देखा कि प्रबन्धक महोदय के सम्मुख एक फाइल खुली पड़ी है और वे उसे देखने में व्यस्त हैं। वह अन्दर जाकर एक ओर खड़ा हो गया। कुछ देर के उपरान्त प्रबन्धक महोदय ने जब फाइल से दृष्टि हटाई, तो उस लिपिक को खड़े देख कर कहा-बैठो! खड़े क्यों हो?आदेश पाकर जब वह कुर्सी पर बैठ गया, तो प्रबन्धक महोदय ने पुनः कहा-मैं एक अविलंब एवं आवश्यक कार्य में उलझा हुआ हूँ,इससे निपट कर तुमसे बात करता हूँ।
     लिपिक ने शिष्टतापूर्वक कहा-यदि आपकी आज्ञा हो तो मैं थोड़े समय पश्चात् पुनः उपस्थित हो जाऊंगा।तब तकआपअपना काम निपटा लें। प्रबन्धक महोदय ने उत्तर दिया-तुम यहीं बैठो,मैं अभी थोड़ी देर बाद तुमसे बात करता हूँ। यह कहकर वे कमरे के बाहर चले गये। लगभग डेढ़-दो घंटे बाद वे पुनः वापस आये और दूसरी फाइल उठाकर फिर काम में लग गये। लिपिक ने पुनः विनय की-मेरे लिये क्या आदेश है?
प्रबन्धक महोदय ने उत्तर दिया-बैठो! तुम्हारे साथ मुझे एक आवश्यक विषय पर बातचीत करनी है। मैं ज़रा इस फाइल से निबट लूं,फिर आराम से तुमसे बात करूँगा। और इसी तरह टालमटोल में लगभग पांच घंटे व्यतीत हो गये।खाली बैठे-बैठे लिपिक परेशान हो गया। उसके मन में अनेक प्रकार की शंकायें उठने लगीं। अन्त में जब उसकी व्याकुलता सीमा पार कर गई, तो उसने प्रबन्धक महोदय से विनयपूर्वक कहा-मुझसे ऐसी क्या भूल हो गई है, जो आप मुझे यह दण्ड दे रहे हैं?
     प्रबन्धक महोदय ने हंसते हुये कहा-नहीं, तुम्हें कोई दण्ड नहीं दिया जा रहा है। कलअमुक लिपिक से तुम यह कह रहे थे कि""हमारा जीवन भी कोई जीवन है, बस हर समय काम-काम-काम।ज्ञात होता है कि हमें जीवन में कभी आराम से बैठेने को नहीं मिलेगा।आराम कदाचित् हमारे भाग्य में ही नहीं है। काम करते करते ही हमारे जीवन का अन्त हो जायेगा।''तुम्हारी बातों से मैने यह अनुभव किया कि तुम्हें स्यात् बहुत काम करना पड़ता है और तुम्हें विश्राम की बहुत आवश्यकता है, इसलिये मैने यह निश्चित किया है कि तुम उपस्थिति रजिस्टर पर हस्ताक्षर करने उपरांत यहाँ आकर बैठ जाया करो। आज से तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ेगा। महीने के बाद तुम्हें वेतन मिल जाया करेगा।
     लिपिक ने हाथ जोड़कर कहा-मेरी भूल क्षमा करें और मुझे काम पर जाने की आज्ञा दें। मैं तो खाली बैठे बैठे तंग आ गया। भविष्य में मैं ये शब्द कभी अपने मुख से नहीं निकालूँगा। आज मुझे अच्छी तरह इस बात काअनुभव हो गया है कि खाली बैठना मनुष्य के स्वभाव के विरुद्ध है।प्रबन्धन महोदय ने उसे प्रेम से समझाते हुये कहा-तुम ठीक समझे। मनुष्य काम किये बिना एक पल भी नहीं रह सकता। उसके द्वारा कोई न कोई काम हरसमय होता ही रहता है।भगवान श्रीकृष्णचन्द्रजी महाराज ने भी श्रीमद्भगवतगीता में फरमाया है कि मनुष्य एक प्रकार से काम करने के लिये विवश है।जब ऐसा है कि मनुष्य को प्रत्येक स्थिति में काम करना ही है, तो वह प्रत्येक काम मन-चित्त लगाकर क्यों न करे? वह काम से जी क्यों चुराये?मनुष्य के ह्मदय में तो सदैवयह भावना होनी चाहिये कि""विश्राम नहीं,प्रत्युत काम।''और वास्तव में देखा जाये तोऐसा मनुष्य ही जीवन में प्रगति करता है। इसके विपरीत जो व्यक्ति ""काम नहीं, प्रत्युत् विश्राम''की उक्ति पर विश्वास रखता है, वह जीवन में कभी प्रगति नहीं कर पाता। इसलिये यदि जीवन में उन्नति करना चाहते हो, तो प्रत्येक काम को सच्चाई और लगन से करोऔर काम करते समय मन-चित्त की समस्त वृत्तियों को उसी में लगा दो।कत्र्तव्य से कभी जी मत चुराओ। काम से जी चुराने वाला मनुष्य अकर्मण्य कहलाता है और अकर्मण्य व्यक्ति जीवन में कभी भी सफलता का मुख नहीं देख सकता।
प्रबन्धक की शिक्षाप्रद बातों से वह लिपिक अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसदिन से प्रत्येक कार्य लगन,रुचि,परिश्रमऔर तन्मयता से करने लगा।

No comments:

Post a Comment