Wednesday, March 16, 2016

विषयों से दुर्गन्ध


     एक महात्मा जी वन में कुटिया बनाकर रहते थे। और प्रभु का सुमिरण ध्यान किया करते थे। वे बहुत ही कम बोलते थे। आसपास के क्षेत्र के लोग महात्मा जी का बड़ा आदर सम्मान करते थे। उस देश का राजा बड़ा ही विलासी प्रकृति का था और सदैव ही विषय भोगों में रत रहता था, राजा के कोई सन्तान न थी। राजा के कुछ सम्बन्धियों ने उसे महात्मा जी के पास जाने का परामर्श दिया कि आप उनकी शरण में जाओ, हो सकता है कि उनके आशीर्वाद से आपका काम बन जाए।
     राजा ने महात्मा जी के दर्शन कियेऔर फिर उनके चरणों में विनय की-आप यहाँ टूटी-फूटी झोंपड़ी में क्यों रहते हैं?आप महल में मेरे साथ चलिये और वहीं रहिये, यहाँ वन में क्या रखा है? महल में आपको हर प्रकार का शारीरिक सुख आराम मिलेगा। दास दासियां आपकी सेवा में हर समय उपस्थित रहकर आपकी आज्ञा मानेंगे। पहले तो महात्मा जी ने राजा की बात का कोई उत्तर न दिया,परन्तु जब उसने बार-बारआग्रह किया तो महात्मा जी महल में जाने के लिए तत्पर हो गये।राजा ने उन्हें रथ में बैठाया और रथवान को महल की ओर चलने का संकेत किया। महल के अन्दर प्रविष्ट होने पर महात्मा जी को चारों ओर विषय-विलासिता के ही चिन्ह नज़र आए। यह देखकर उन्होंने अपने नाक पर कपड़ा रख लिया। राजा के पूछने पर महात्मा जी बोले-""तुम्हारे महल में तो बड़ी दुर्गन्ध उठ रही है।''
     राजा ने आश्चर्य से उनकी ओर देखा,फिर कहा-""दुर्गन्ध!यहां दुर्गन्ध कहाँ?'' महात्मा जी ने कहा-""दुर्गन्ध तो उठ रही है। क्या तुम्हें दुर्गन्ध नहीं आ रही?'' राजा ने कहा-"'क्या आप मुझसे मज़ाक कर रहे हैं?दुर्गन्ध तो तब अनुभव हो,जब दुर्गन्ध का यहाँ कहीं नामोंनिशान हो। यहाँ तो हर समय हर स्थान पर दासियाँ इत्र-फुलेल छिड़कती रहती है, फिरभला यहाँ दुर्गन्ध का क्या काम?''महात्मा जी ने मुस्कराते हुए कहा ""तुम्हें दुर्गन्ध न आ रही होगी, परन्तु हमें तो बहुत आ रही है। खैर! छोड़ो इन बातों को और हमारे रहने का प्रबन्ध करो।''राजा ने उनके रहने का कमरा तैयार करने का आदेश दिया। वहां भी विषयविलासिता के सामानों की ही बहुलता थी। थोड़ी देर में महात्मा जी के सम्मुख छत्तीस प्रकार के व्यंजनों से युक्त भोजन परोस दिया गया। उन्होंने थोड़ा-सा भोजन किया और फिर विश्राम करने लगे। दूसरे दिन उन्होंने राजा से कहा-""आओ, कहीं टहलने चलें।''
     राजा चूँकि अपने स्वार्थ को दृष्टिगत रखकर महात्मा जी को महल में लाया था,अतः उनकी बात टाल न सका और चुपचाप उनके साथ हो लिया। महात्मा जी राजा को साथ लेकर महल से बाहर निकले और घूमते फिरते उस बस्ती की ओर जा निकले, जहाँ चमड़े का काम होता था। उस बस्ती में कहीं चमड़ा कमाया जा रहा था और कहीं पर चमड़ा सुखाया जा रहा था,इसलिये चारोंओर चमड़े की दुर्गन्ध उठ रही थी।राजा ने नाक पर रूमाल रखते हुये कहा-""यह आप कहाँ ले आए? यहाँ तो दुर्गन्ध के मारे एक क्षण भी खड़ा होना कठिन है।यहां से शीघ्र चलिये।''
     महात्मा जी ने कहा-""सामने देखो, कितने ही स्त्री,पुरुष और बच्चे काम में लगे हुए हैं,उनमें से तो किसी को भी दुर्गन्ध नहीं आ रही, फिर तुम्हें दुर्गन्ध क्योंआ रही है?''राजा ने कहा-""ये लोग दिन-रात चमड़े का काम करनेऔर इस वातावरण में रहने के कारण इस दुर्गन्ध के अभ्यस्त हो गए हैं, इसलिए इन्हें दुर्गन्ध महसूस नहीं हो रही,अन्यथा वातावरण में तो पूरी तरह दुर्गन्ध फैली हुई है।''
महात्मा जी ने हँसते हुए कहा-""राजन! यही हाल तुम्हारा और तुम्हारे महल का भी है, जहाँ सिवा विलासिता और विषयभोगों के सामानों के हमें और कुछ भी नज़र नहीं आया। विषयभोगों और मदिरा आदि में दिनरात रहने से तुम भी उनके इतने अभ्यस्त हो गए हो कि उनमें से निरन्तर उठती हुई दुर्गन्ध का तुम्हें पता ही नहीं चलता परन्तु हमारेलिए तो उस दुर्गन्ध में रहना असम्भव है।।''यह कहकर महात्मा जी राजा के उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना अपनी कुटिया की ओर चल दिये। महात्मा जी के इन वचनों का राजा के मन पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा और उसे  विषयभोगों से घृणा हो गई। शेष जीवन उसने महात्मा जी के उपदेश अनुसार भजन-भक्ति और नाम-सुमिरण में व्यतीत किया। इस प्रकार वह अपना जन्म सफल कर गया।

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