Saturday, March 19, 2016

पिछले जन्म का फल


 प्रथम महायुद्ध के पच्चीस-तीस वर्ष उपरान्त विदेश में एक युवक अपने यौवन के उन्माद में,ऐश्वर्युक्त जीवन बिता रहा था। अचानक क्रान्ति हुई। राजनैतिक समस्यायें समय परिवर्तन के साथ मोड़ लेती है। अचानक विदेश से प्रवासियों को निकाला जाने लगा और उनके साथ अमानवीय घटनायें घटित हुई। उस युवक की स्त्री तथा पुत्र को निर्दयता से उसके सामने मार-पीटकर सीखचों के अन्दर ले जाया गया।उस युवक नेअपनी जान बचाकर कुछ स्वर्ण मुद्रायें जेब में डालीं और हिमाच्छित प्रदेश में हिमालय की ओर मनःशान्ति को प्राप्त करने के लिए चल पड़ा। रह रह कर उसेअपनी पत्नी और पुत्र की यादआती तो मन चीत्कार कर उठता। परन्तु अब हो ही क्या सकता था। भूख-प्यास,सर्दी आदि सहन करने की उसमें क्षमता न थी। ऊनी पतलून,ओवरकोट एवं टोप पहने वह कभी कभार हिमाच्छित प्रदेश से नीचे उतरता। दुकान पर स्वर्ण मुद्रा फैंकता और खाने पीने का सामान जुटाकर चल देता। पहाड़ पर एक गुफा में उसने एक योगी को देखा। समाधिस्थ। प्राणों का स्पन्दन भी है या नहीं, वह नहीं जानता था। बस!उसने मनःशान्ति को प्राप्त करने के लिए गुफा के बाहर वृक्ष की खोल में डेरा लगा दिया।
     कभी कभी लकड़ियाँ बीन कर लाता और गुफा से बाहर जला देता कि शीतलता कम हो जाये। कभी दूध एवं फलादि रख देता कि जब भी योगी उठें, श्रद्धा स्वीकार कर उसे अनुग्रहीत करें। कई मास
प्रतीक्षा के उपरान्त योगी की समाधी खुली।महायोगी की देह से एक दिव्य प्रकाश निकल रहा था। उसने झुककर योगी को प्रणाम किया। महायोगी ने कहा-वत्स! तुम्हारा परिचय?
     मैं इसी भूमि का नागरिक हूँ। परन्तु बिना किसी दोष के क्रान्ति- कारियों ने मेरा घर उजाड़ दिया। मुझे हंटरों से पीटा और मैं किसी तरह से जान बचाकर यहाँ आपकी शरण में पड़ा हूँ। मैं आपके द्वार पर कब से आँखें बिछाये सहायता की प्रतीक्षा कर रहा हूँ महाराज। क्या आप उन पिशाचों से मेरा प्रतिशोध दिला सकते हैं?
     हाँ! सब कुछ हो सकता है वत्स! केवल अपने भूतपूर्व जन्म को इन आँखों से देख लो-महायोगी ने शान्त एवं मधुर वाणी में कहा। उसने आँखें बन्द कींऔर उसी क्षण उसकी आँखों के समक्ष चलचित्र की भाँति एक-एक चित्र सामने आने लगा। कंटीली तारों के घेरे में सैंकड़ों स्त्री-पुरुष और बच्चे।राजाओं का युग था।वह सेनापति के रूप में घोड़े पर चढ़ा हुआ हंटरों से पीटता हुआ हँसता जा रहा था। स्त्री ने करुण पुकार की। उसके बच्चे को छीनकर घोड़े के नीचे पद दलित कर अट्टाहास करता हुआ सहकारियों सहित सब ने स्त्रियों को भी निर्दयता से कुचल डाला। उसकी सम्मोहित निद्रा भंग हुई। उसका दिल दहल उठाऔर उसे ऐसा लगा कि यह सब कुछ वहअभी कर रहा है। इससेअधिक वह और सहन न कर सकाऔर थर थर कांपते हुए कहा-क्षमा!महायोगी क्षमा!
     यह तुम्हारे अतिरिक्त अन्य कोई नहीं युवक! तुम्हारे सहकारी ही तुम्हारे स्त्री-पुत्र हुए। कोई किसी को दुःख सुख, सम्मान अपमान नहीं देता वत्स! अपने किये हुए कर्म ही दीवार पर फैंकी हुई गेंद के समान
लौटकर अपने पास आते हैं। इस विधान को कोई नहीं टाल सकता। महायोगी ने दिव्य वाणी में समझाया। युवक ने चरणों पर नतमस्तक हो क्षमा माँगी तथा महायोगी को मार्गदर्शक बनाकर जीवन में सत्यता के मग पर अग्रसर होने लगा।

No comments:

Post a Comment