Saturday, March 12, 2016

धन देने का दण्ड माँगा


एक दिन श्री वचन हुये कि किसी व्यक्ति ने राजा के पास जाकर किसी अन्य व्यक्ति पर अभियोग लगाया। अभियोग सिद्ध होने पर राजा ने वादी को आदेश दिया कि तुम स्वयं ही प्रतिवादी के लिये कोई दण्ड निश्चित करो।उसने विनय की कि महाराज।इसको धनवान बना दीजिये। राजा ने प्रश्न किया कि इस दण्ड से तुम्हारा क्या अभिप्राय है?उसने उत्तर दिया-श्री मान्!यह व्यक्ति धन सम्पत्ति के झगड़ोंऔर उसकी संभाल में ऐसा परेशान रहेगा कि इसेस्वप्न में भी सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं होगी।चूँकि यह व्यक्ति अत्यन्त लोभी है,अतएव इसको सदैव धन का लोभ सताता रहेगा और धन बटोरने एवं एकत्र करने की उधेड़बुन में यह दिन-रात अशान्तऔर परेशान रहेगा। इसके लिये मैं यही दण्ड उचित समझता हूँ।
    वह व्यक्ति चूंकि सन्त सतपुरुषों की संगति में रहने वालाऔर उनके वचनों में पूर्णविश्वास रखने वाला था,इसीलिये उसने ऐसा दण्ड निर्धारित किया। सत्पुरुषोंऔर सद्ग्रन्थों के उपदेशों से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जिस मनुष्य के चित्त में धन-सम्पत्ति की आसक्ति हो,उसके लिये वास्तव में ही धन अशान्ति का कारण बन जाता है। इसके विपरीत यदि मनुष्य सत्पुरुषों के उपदेशानुसार संसार में जल कमल के समान निर्लेप
रहे और सांसारिक कार्य व्यवहार करने के साथ-साथ तन-मन-धन से परमार्थ भक्ति का कार्य भी करता रहे,तो ऐसे मनुष्य के लिये धन बन्धन और अशान्ति का कारण नहीं बन सकता। सत्पुरुषों का कथन हैः-
          द्रव्य  खर्च  सत्पात्र  में,  जन्म  जाये  गुरु  सेव।।
          हरि सुमिरण महँ चित्त जिहिं, वह पंडित श्रुति भेव।।
अर्थः-जो धन-सम्पत्ति को भक्ति-परमार्थ के मार्ग में अर्थात् सत्संग मेंऔर सत्पुरुषों की सेवा में व्यय करता है,अपनेअमुल्य जन्म को इष्टदेव सन्त सदगुरु की सेवा में व्यस्त रखता है और अपने चित्त को सदैव मालिक के सुमिरण ध्यान में लीन रखता है, ऐसा विचारवान गुरुमुख ही वेदों के रहस्य को जानने वाला पंडित है और ऐसा गुरुमुख ही अपने तन-मन-धन को सफल कर लेता है।   

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