Sunday, March 20, 2016

गुरु बिन गत नहीं


एक दिन श्री वचन हुये कि ""शाह बिन पत नहीं और गुरु बिन गत नहीं।''इस कथन अऩुसार अधिकतर परिवारों में यह प्रथा चली आती है कि वे अपना एक पारिवारिक शाह बना लेते हैं और आवश्यकता के समय अर्थात विवाह अथवा मृत्यु आदि के अवसर पर उससे ऋण लेकरअपना काम चलाते हैं और धीरे-धीरे ब्याज़ सहित चुकता कर देते हैं। इसमें उन का काम निकल जाता है। और अपने जात-बिरादरी वालों और पड़ोसियों में उनका मान रह जाता है, क्योंकि इस प्रकार के लेन-देन और कमी-बेशी का किसी को पता नहीं चलता। इसी प्रकार अधिकतर परिवारों में गुरु धारण करने की रीति भी चली आती है। जैसे सांसारिक कार्यों के लिये शाह बनाया, वैसे ही पारमार्थिक कार्यों के लिये गुरु भी अवश्य बनाना चाहिये अन्यथा जैसे आवश्यकता के समय बिना शाह के द्वार-द्वार पर रूपया मांगने से मान जाता रहता है, वैसे ही बिना गुरु के परलोक में भी ""गत'' नहीं हो सकती इसलिये गुरु का होना भी अति आवश्यक है। ""दलीलुल आरफीन'' नामक पुस्तक में लिखा है कि हज़रत मुईनुद्दीन चिश्ती साहिब का एक पड़ोसी जो उनका गुरु भाई था, अपने गुरु में दृढ़ आस्था और पूर्ण विश्वास रखता था। जब वह मृत्यु को प्राप्त हुआ तो हज़रत मुईनुद्दीन चिश्ती साहिब उसकी कब्रा पर गये और ध्यानमग्न होकर उसकी रूह की शान्ति के लिये परमात्मा से दुआ करने लगे, तो उस समय प्रथम तो उनके चेहरे का रंग उड़ गया, परन्तु बाद में मुख-मण्डल पर प्रसन्नता के चिन्ह प्रकट हुये। लौटते समय हज़रत साहिब के एक शिष्य ने (जो उस समय हज़रत साहिब के चेहरे के उतार-चढ़ाव को देख रहा था) उसका कारण पूछा तो आपने फरमाया कि जब मैं उसके विषय में सोच विचार करने लगा तो देखा कि मेरे गुरु भाई के निकट एक भयंकर आकृति एवं रूप-रंग का देव (फरिश्ता) आया और उसको कष्ट देना चाहा। उसको देखकर मैं दुःखी और निराश हो गया परन्तु उसी समय हमारे पीरो-मुर्शिद (गुरुदेव) हज़रत उस्मान हारूनी रहमतुल्ला अलिया प्रकट हुयेऔर उस फरिश्ते से कहा कि इसको क्यों कष्ट देता है? इसको छोड़ दे। उसने उत्तर दिया कि इसने अपने जीवन में कोई शुभ कर्म अर्थात दान, पुण्य, तीर्थ, व्रत आदि नहीं किया, अतएव इसको मैं नहीं छोड़ूँगा। हमारे गुरुदेव ने फरमाया कि खैर! शुभकर्म न किया तो न सही, हमारा दामन तो इसने पकड़ा है और हमारी सेवा-भक्ति तो इसने की है,क्या यह कम है? किन्तु फरिश्ता न मानाऔर फिर कष्ट देना चाहा तो उन्होने उस फरिश्ते के मुख पर बड़े ज़ोर से एक थप्पड़ मारा। थप्पड़ खाकर वह फरिश्ता भाग निकला। और उसी समय एक सुन्दर रूप-रंग का देवदूत वहां प्रकट हुआ और मेरे गुरुभाई को स्वर्ग की ओर ले गया। यह देखकर मुझे अत्यन्त प्रसन्नता हुई और मैने अपने गुरुदेव को लाख-लाख धन्यवाद दिया। इतने में गुरुदेव का दैदीप्यमान स्वरूप भी अन्तर्धान हो गया। और यह ध्रुव सत्य है कि सन्त सदगुरु का परोक्ष हाथ सदैव सेवक के साथ रहता है। इस लोक में भी और परलोक में भी। गुरुमुख सेवक जब भी अपने इष्टदेव का सच्चे ह्मदय से श्रद्धा विश्वास के साथ सुमिरण ध्यान करता है, तो उनका परोक्ष हाथ सहायता के लिये वहीं विद्यमान होता है।
    सोना काई न लगे लोहा घुन नहीं खाये।
    भला बुला शिष्य गुरु का कबहुँ नरक नहीं जाये।।
जब केवल दामन पकड़ने से ही यमराज जीव का कुछ नहीं बिगाड़ सकता तो फिर जो एक एक स्वांस मालिक की भक्ति में नाम में लगायेंगे तो उनके कल्याण में शक ही क्या है? वह निश्चय ही सच्चे आनन्द को प्राप्त सकेंगे। हम सब सौभाग्यशाली हैं जिन्हें ईश्वर की कृपा से मानुष जन्म मिला यम त्रास निवारण, जगतारण श्री परमहँस दयाल जी की शरण प्राप्त हुई, उनकी सच्ची राहनुमाई नसीब हुई और उनसे सच्चे नाम की प्राप्ति हुई है। हमारा कर्तव्य है कि इस सुनहरी अवसर का लाभ उठाते हुये महापुरुषों के वचनों के अनुसार अपने जीवन के एक एक स्वांस को मालिक के अर्पित करते हुये अपनी आत्मा को आवागमन के चक्कर से, चौरासी की कैद से छुड़ाकर परमात्मा से मिलाना है। और मालिक से यही प्रार्थना करें कि प्रभो। 
कई जन्मो के बिछुड़े थे माधो ये जन्म तुम्हारे लेखे। 
कहे रविदास आस लग जीवां चिर भयो दरसन पेखे।
प्रभो कई जन्मों से आपसे बिछुड़े थे, ये जीवन आपके लेखे लग जाये मन धोखा न दे इसी आस पर जीऊं कि आपकेदर्शन पाकर जीवन सफल करूँ।

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