Wednesday, March 23, 2016

लोभी राम को चार बत्तियाँ दीं


माया की आशा रखने वाला एक लोभीराम किसी महात्मा के पास गया। निवेदन किया,""स्वामी जी!मेरे पास पौना लाख रुपया है-आप कृपा करें कि उसमें वृद्धि हो जाये और वह पूरा लाख बन जाये। मेरी यह आशा यदि पूर्ण हो गई तो मैं एक चित्त होकर भजन करुँगा। यह मेरा वचन है।'' महात्मा जी ने उसे समझाया कि तुम इस विचार का त्याग कर दो आशाओं के दीवाने मत बनो। मन के धोखे में आकर अपना समय निरर्थक न गँवाओ।भजन भक्ति का सम्बन्ध पौने या पूरे लाख से नहीं हुआ करताअपितु इन्हींआशाओं के कारण भजन-भक्ति में परदे पड़ जाने का भय बना रहता है। परन्तु उसने अपनी बात का बार बार अऩुरोध किया और महात्मा जी को बाध्य किया कि मुझे आप औरों जैसा मत समझिये-निश्शंक हो करआप मेरी परीक्षा कर लें। उसकी  विनम्रता पूर्ण प्रार्थना को सुन कर महात्मा जी विवश हो गये और उन्होने रूई की चार बत्तियां बनार्इं तथा उन्हें घी में भिगो कर उसे दे दियाऔर कहा किअमुक पहाड़ पर इन बत्तियोंं को ले जाओ,उस पर्वत के एक कोने पर एक बत्ती जलाना।यदि वह हवा से बुझ जाये तो दूसरे कोने में जाकर दूसरी बत्ती जला लेनाअगर वह भी बुझ जाय तो तीसरे कोने में जाकर तीसरी बत्ती जलाना। यदि वह भी शान्त हो जाये तो चौथे कोने में जाकर चौथी बत्ती जलाना।भाव यह कि जहां बत्ती जलती रहे उसीके नीचे खुदाई करने से तुम्हें धन मिलेगा। उसी जगह से तुम उतना ही धन उठाना जितने से तेरा एकलाख पूरा हो जाये।अधिक लालच मत करना।चौथी बत्ती जलाने की कोशिश मत करना।और प्रण केअऩुसार भजनभक्ति के काम में लग जाना। वह पुरुष अति प्रसन्न हुआ। बत्तियाँ लेकर उसी पहाड़ पर जा पहुँचा। वहाँ जाकर उसने पर्वत के एक कोने में बत्ती जलाई। वह जलती रही। थोड़ी खुदाई वहां करने पर उसे तांबे की ऐसी कान मिली जिस में लाखों रूपयों का तांबा विद्यमान था। दिल में सोचने लगा कि जैसे कोई भिखारी किसी धनाढय से एक पैसे की याचना करता है तो वह सेठ अपनी प्रतिष्ठा को देख कर उसकी झोली में रूपया डाल देता है वैसे हीमैने तो महात्मा जी से पच्चीस हज़ार की भीख मांगी थी किन्तु उन्होने अपनी अन्तरिच्छा से मुझे लाखों का माल दे दिया है। मुझे अब उनके पास दोबारा मांगने को जाना नहीं हैअब इसे तो ले ही लूँ-यहाँ यह पड़ा किस काम आएगा?अपने मन ही मन में पुलाव पका कर वह लाखों रूपयों का ताम्बा घर में ले आया।
     प्रत्येक वस्तु का अपनाअपना प्रभाव है।ज्यों ज्यों धन बढ़ा त्यों त्यों उसकी तृष्णा भी बढ़ती चली गई। मन ने कहा कि महात्मा जी की दी हुई दूसरी बत्ती भी जलाकर देख ली जाये।इस विचार से पहाड़ के दूसरे कोने में जाकर उसे जला लिया। वह भी जलने लगी। वहाँ खुदाई करने पर चांदी की कान मिली।हर्ष से फूला न समाया। माया के मद में चूर होकर अपने को कुछ का कुछ समझने लगा।चापलूस लोग भी उसे बड़ा भाग्यशाली कह कर उसकी लगे प्रशंसा करने। जब सारी की सारी चाँदी घर आ गई तो वह तीसरी बत्ती को लेकर पहाड़ के तीसरे कोने में चला गयाऔर उसे जला लिया।वह भी जलती रही।विधि का विधान ऐसाहुआ कि उस धरती के खोदने पर सोने की कान प्राप्त हुई। करोड़ों रुपयों का सोना उसे वहां से हाथ लगा।प्रतिदिन उसपर माया का नशा भी सवार होता गया।भजन भक्ति करने वाले प्रण तो उसे सर्वथा भूल गये।
          प्रानी  राम न  चेतई  मदि  माइआ  कै  अंध।।
          कहु नानक हरिभजन बिनु परत ताहि जम फंध।।
मन में सोचने लगा कि मुझे एक से एक बढ़कर उत्तम वस्तुएं मिलती जा रही हैं। पहले ताम्बा मिला,फिर चांदी मिली,बाद में सोना इस क्रम से अब चौथे कोने में अवश्य ही हीरे-जवाहरात मिलेंगे।महात्मा जी ने अपने लिये रखे होंगे इसलिये मुझे मना किया। लालच में आकर निदान चौथी बत्ती लेकर उस पहाड़ के चौथे कोने मे चला गया। बत्ती जलाई तो वह भी जलने लगी।प्रसन्न होकर उसने वहाँ खुदाई की और एक कमरा देखा
उसपर पलस्तर किया हुआ था।उनमें एक बहुत बड़ा दरवाज़ा था।जिसके किवाड़ बन्द थे। बाहर से कुण्डी लगी हुई थी।कुण्डी खोलकर उसनेअभी अन्दर पग रखा ही था कि एकमनुष्य जो पहले से उस कमरे में बन्द था झट से बाहर निकल आया और तुरन्त किवाड़ बन्द करके उसने सांकल लगा दी। और बोला कि जब कोई तुम्हारे जैसा और कोई लोभीराम आवेगा तब तुम्हें मुक्ति मिलेगी। तब तक यहाँ की हवा खाओ।
     अब उसे छुटकारा क्या मिलना था?कुछ दिन तो बेचारा निराहार वहाँ पड़ा रहा और अपनेआप को भरपेट कोसता रहा। कि मैने भयंकर भूल की जो उन महात्मा जी के वचन को नहीं माना और उनके साथ किये हुए प्रण को तोड़ दिया-सच है,""लालच बहुत बुरी बला है।'' लोभ में आकर यदि मैं वचन भंग न करता तो मुझे यह आज का दिन देखना न पड़ता,परन्तु अब पछताये होत क्या जब चिड़ियां चुग गर्इं खेत।
     सोने चाँदी के ढेरों का चिन्तन करता हुआ वह सेठ ठण्डी आहें भरता रहा अन्त में यमदूतों ने आकर उसे मृत्युपाश में बाँध लिया और धर्मराज ने उसे सर्प की योनि में डाल दिया। परिणाम क्या निकला-जिस माया के लालच में पड़ कर महात्मा के वचनों का उल्लंघन किया वह माया भी साथ न गई। उसी की तृष्णा ने उसे नीच योनियों में अति दुःखित किया। अपना लोक भी बिगाड़ बैठा और परलोक भी न सँवरा। भजन भक्ति के बिना उसने दोनों लोक ही नष्ट कर दिये।
          कबीर दीनु गवाइआ दुनी सिउ, दूनी न चाली साथि।
          पाइ   कुहाड़ा   मारिआ , गाफलि  अपुनै  हाथ।।
   इसलिये हमें हमारे श्री गुरुदेव जी जो कि हमारे परम हितैषी हैं-हमारी
मनोवृत्ति को बदलना चाहते हैं-कथन करते हैं ""तुम तो आशा रखो केवल नाम की-शेष सब चीज़ें तुम्हारे पीछे फिरेंगी। जैसे सम्पूर्ण नदियाँ समुद्र की ओर स्वतः दौड़ती चली जाती हैं वैसे नाम के रसिक के पीछे समस्त सांसारिक पदार्थ भागे चले आते हैं।

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