Friday, March 18, 2016

कड़ुवे कद्दू को तीर्थों पर स्नान कराया


          अंतरि मैलु जे तीरथ नावै, तिसु बैकुण्ठ न जाना।।
          लोक  पतीणे  कछू  न  होवै नाही राम अयाना।।
          पूजहू रामु एकु ही देवा।।साचा नावणु गुर की सेवा।।
एक बार एक प्रेमी तीर्थ-यात्रा करने के विचार से घर से निकला और घूमते हुए काशी जी जा पहुँचा।उस प्रेमी ने परमसन्त श्रीकबीरसाहिब जी का बड़ा नाम सुन रखा था,अतः उसने उनके दर्शन करने का विचार किया। जब वह प्रेमी श्री कबीर साहिब जी के घर पहुँचा,उस समय रात्रि होने को थी। श्री कबीर साहिब जी को जब ज्ञात हुआ कि वह प्रेमी तीर्थ यात्री है,तो उन्होने रात को विश्राम करने के लिएअपने घर में ही उसका प्रबन्ध कर दिया। प्रातः जब वह चलने लगा, तो उसने श्री कबीर साहिब जी से भी तीरथ यात्रा पर चलने की विनय की। श्री कबीर साहिब जी ने प्रेमी का दिल रखने के लिये कहा-भाई!हम तुम्हारे साथ अवश्य चलते, परन्तु अभी हमारे पास समय नहीं है। हाँ! हमारा एक काम है,यदि तुम करो तो बतायें। प्रेंमी ने उत्तर दिया-आप काम बतलायें, उस काम को करके मैं स्वयं को भाग्यशाली समझूँगा। श्री कबीर साहिब जी ने उसे एक कड़ुवा कद्दू देते हुए कहा-जिस जिसतीर्थ पर जाकर तुम स्नान करो, तो अपने साथ इस कद्दू को भी अवश्य स्नान कराना।
     उस प्रेमी की समझ में श्री कबीर साहिब जी की बात न आई, फिर भी वह कद्दू लेकर चल पड़ा। वह जिस तीर्थ पर जाता,स्वयं भी स्नान करता और कद्दू को भी स्नान कराता। कुछ दिन उपरान्त लौटते हुये वह प्रेमी श्री कबीरसाहिब जी के चरणों में पहुँचा और वह कद्दू उनके समक्ष रख दिया। श्री कबीर साहिब जी ने फरमाया-तुम थके हुये हो, भोजनादि करके आराम करो।तदुपरांत श्री कबीरसाहिब जी ने उस यात्री को शिक्षा देने के लिये उसी कद्दू की सब्ज़ी बनवाई और भोजन में उसके आगे परोस दी।उस प्रेमी ने ज्योंही ग्रास मुख में डाला,उस का मुख कड़वाहट से भर गया और वह थू-थू करते हुये बोला-महाराज!यह कौन सी सब्ज़ी आपने बनवाई है? यह तो बहुत ही कड़वी है।
     श्री कबीरसाहिब जी ने फरमाया-यह उसी कद्दू की है,जो हमने तुम्हें दिया था।उस प्रेमी ने हँसते हुये कहा-वाह महाराज!आपभी मज़ाक करते  हैं?वह तो कड़ुवा कद्दू था। श्री कबीर साहिब जी ने फरमाया-ज्ञात होता है कि तुमने इसे तीर्थों का स्नान नहीं करवाया,न्यथा इसकी कड़ूवाहट अवश्य दूर हो गई होती।प्रेमी बोला-महाराज!भला बाहर के स्नान से भी कभी अन्दर की कड़ुवाहट दूर हुई है, जो इसकी होती। श्री कबीर साहिब जी ने फरमाया-हमारा भी यही कथन है कि केवल तीर्थों के स्नान से अन्दर की मैल दूर नहीं होती।अन्दर की मैल तो सत्पुरुषों की शरण-संगति में जाकर नाम का अभ्यास करने से ही दूर होगी।
     प्रेमी संस्कारी था, बात उसकी समझ में आ गई। उसने श्री कबीर साहिबजी के चरणों में प्रणाम कर सन्मार्गदर्शाने के लिये उनका कोटिशः धन्यवाद किया और नाम-दान की विनय की। श्री कबीर साहिब जी ने दया करके उसे नाम-दान दिया। नाम की कमाई करने से उसका जीवन संवर गया। यहां मनमें शंका उत्पन्न हो सकती है कि क्या तीर्थों पर जाने का कोई लाभ नहीं? इसके उत्तर में सन्तों का कथन है कि लाभ तो अवश्य है,परन्तु वह लाभ कुछ और ही है, जैसा की कथन हैः-
          उठ  फरीदा  गमन  कर  ते  दुनियाँ  वेखण  जा।
         मत कोई बख्शिया मिल जाई ते तूं वीं बख्शिया जा।।
यह कहकर कि तीर्थों पर जाने से मन की मलिनता उतरती है और मन शुद्ध निर्मल होता है, साधारण जीवों के सुधार का एक साधन सोचा गया ताकि संसारी लोग,जो सम्पूर्णआयु संसार के कार्य व्यवहार में फंसे रहते हैं,थोड़ा समय निकालकर तीर्थों पर जायें,इसके पीछे सन्तों का वास्तविक अभिप्राय यही था कि वहाँ पर यदि सौभाग्य से उनका मालिक के प्यारे सन्तसतपुरुषों से मिलाप हो जायेगा,तो उनकी शुभ संगति एवं उपदेश से उनकी नैया पार हो जायेगी।सत्पुरुषों की शुभसंगति तथा उनकी कृपा के बिना मन की मलिनता कदापि दूर नहीं होती।इसलिये मनुष्य को चाहिये कि सन्तों सत्पुरुषों की शुभ संगति ग्रहण कर मन को सेवा-भक्ति तथा नाम-सुमिरण से शुद्ध-निर्मल बनाये। मन के शुद्धिकरण से तथा सत्पुरुषों की प्रसन्नता से ही प्रभु के धाम में पहुँचा जा सकता है।

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