मैं जाना मन मर गया मन न मोया जाय।
वरषा भई कुसंग की दादुर ज्यों बिल्लाय।।
दादुर मेंढक को कहते हैं उसके लिये प्रसिद्ध है कि मेंढक मर जाय, सूख जाये, मार्ग में आने जाने वाली गाड़ियों के नीचे आकर पिस जाये टुकड़े टुकड़े हो जाय किन्तु ज्यों ही वर्षा होती है तो कण कण से एक एक मेंढक पैदा हो जाता है इसी तरह पापी मन पर भरोसा रखना बड़ी भारी भूल है यह भी तब तक शान्त रहता है जब तक जीव अपने को माया से बचा कर रखे।
एक महात्मा जी बिल्ली के सिर पर दीया जलाकर रखते थे और उसी के प्रकाश में पुस्तक पढ़ते और जिज्ञासुओं को कथा सुनाया करते। जब तक कथा समाप्त नहीं होती थी,महात्मा जी स्वयं अपने हाथ से दीपक उठा नहीं लेते थे, तब तक वह बिल्ली एक आसन पर अडोल(एकाग्र चित) होकर बैठी रहती थी। एक दिन एक समझदार सत्संगी ने सोचा कि इस बिल्ली की परीक्षा लेनी चाहिये वह घर से एक चूहा पकड़ कर दूसरे दिन साथ में ले आया। जब कथा आरम्भ हुई तो उसने चूहा छोड़ दिया। ज्यों ही वह चूहा बिल्ली के आगे से निकला तुरन्त बिल्ली की समाधी भँग हुई और वह उस चूहे के पीछे लपकी दीपक गिर गया और बुझ गया। यह मन भी ऐसा ही धोखेबाज़ है इसको सदा ही विषय विकारों से बचा कर रखना चाहिये। मन से सदा सतर्क रहना चाहिये।
अक्सर साधकों के मन में यह प्रश्न उठता है कि कब तक साधना करें? कब उन्हें आत्मसाक्षात्कार होगा? कई साधक तो कुछ सत्संग करके और शास्त्र पढ़कर यह समझ लेते हैं कि अब उन्हें ज्ञान हो गया है,सिद्ध हो गये हैं,ऐसा सोचकर साधन छोड़ देते हैं। इसका फल यह होता है कि वे अपनी स्थिति से गिर जाते हैं। क्योंकि मन को ज़रा भी अवकाश मिलता है तो यह पुनः विषयों के लिये मचल उठता है। जैसै घर में धूल अपने आप आ जाती है परंतु अपने आप धूल निकलती नहंी उसे निकालने के लिये झाड़ू लगाना पड़ता है। उसी प्रकार मन में बुराइयां अपने आप प्रवेश कर जाती है। लेकिन अपने आप निकलती नहीं। उन्हें निकालने के लिये साधन करना पड़ता है। इसलिये साधन भजन कभी छोड़ना नहीं चाहिए। ज्ञान होने के बाद भी ब्राहृनिष्ठा के लिये अभ्यास करना पड़ता है। उड़िया बाबा महाराज कहा करते थे कि ज्ञान होना आसान है लेकिन ज्ञाननिष्ठा कठिन है। उसके लिये अभ्यास की आवश्यकता है। बिना अभ्यास के मन वश में नहीं आता। उड़िया बाबा से एक साधक ने प्रश्न किया कि कब समझें के हम सिद्ध हो गये या हमें ज्ञान हो गया? तो वे बोले जब चित्त विषयों की ओर न जाए और संसार के विषय फीके लगने लगें। मन में राग-द्वेष का अभाव हो जाए। भगवान के सिवाय और कुछ मीठा न लगे। निरन्तर भगवान की सहज स्मृति मन में उदय होने लगे तब समझों सिद्धि प्राप्त हुई। योग वशिष्ठ में भी ज्ञान के बाद वासनाक्षय के लिये भूमिकायें बतायी गयी हैं। ज्यों ज्यों वासना का क्षय होता है वैसे वैसे ब्राहृानन्द के विलक्षण सुख की प्राप्ति होती है।
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