Sunday, February 14, 2016

मुनि मंक


     योगवासिष्ठ में एक कथा आई है कि मुनि मंक एक बार दोपहर के समय रेतीले मैदान में से नंगे पाँव जा रहे थे। ग्रीष्म ऋतु,दोपहर की कड़कती धूप,ऊपर नीचे ही आग बरस रही थीऔर उनका सम्पूर्ण शरीर इस आतप से झुलसा जा रहा था। वे चाहते थे कि निकट के गाँव में पहुँचकर कुछ देर आराम करें। अकस्मात उसी समय मार्ग में ही वसिष्ठ जी मिल गये और उन्होने उस गांव में जाने से मना किया, क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि उस गांव में मनमुखों का वास है।
     वसिष्ठ जी ने फरमाया कि इस मरुस्थल के आतप से तो आपका यह शरीर ही जल रहा है,परन्तु इन मनमुखों की संगति करने से आपकी आत्मा पर जो माया का आवरण पड़ जायेगा, उससे आपकी आत्मा को न जाने कितने दीर्घ समय तक जन्म मरण की अग्नि में जलना पड़ेगा। अंधेरी गुफा में सर्प बन कर रहना, पत्थर की शिला में कीड़ा होकर रहना अथवा मरुस्थल में लंगड़ा हिरण बनकर चलना इतना बुरा नही,जितना कि मनमुखों की संगति करना बुरा है। भाव यह कि बुरी संगति का प्रभाव बहुत बुरा निकलता है। वसिष्ठ जी महाराज के सत्संग के वचन सुन कर मुनिमंक जी के मन को शान्ति मिलीऔर उस, गर्म लू के दुःख को मालिक की दात समझ कर,उसे प्रसन्नतापूर्वक झेलते हुये और वाह-वाह करते हुये अपने मार्ग पर बढ़ते गये और सकुशल अपने आश्रम पर जा पहुँचे।

No comments:

Post a Comment