Sunday, February 21, 2016

बिना भजन भगवान के, चली अकारथ जान


    एक राजा बड़ा ही भगवद्भक्त और सन्त सेवी था। पूर्ण महापुरुषों के उपदेशानुसार राज्य के दायित्व को निभाते हुए वह सदा नाम-सुमिरण और भजन-भक्ति में लीन रहता था। उसके यहाँ प्रायः सत्संग होता रहता था और सन्त महापुरुषों की शुभ संगति का वह लाभ प्राप्त करता रहता था। राजा की एक कन्या थी। प्रारम्भ से ही सन्तों महापुरुषों की संगति मिलने से उसके ह्मदय में नाम और भक्ति की लगन लग गई थी। जब उसकी आयु लगभग दस-ग्यारह वर्ष की थी, उस समय की बात है कि एक त्योहार पर उसकी धाय ने उसे बधाई दी। राजकुमारी ने अपनी अँगुली से मुल्यवान अंगूठी उतारकर उसे पुरुस्कार में दे दी। अँगूठी पा कर धाय ने उसे आशीर्वाद दिया-""तेरी उम्र लम्बी हो।''राजकुमारी ने हँसते हुए कहा-""लम्बी आयु प्राप्त करने से क्या होगा?'' धाय ने कहा- तू युवा हो जायेगी। राजकुमारी ने कहा-फिर क्या होगा? धाय ने कहा-फिर अन्य देश के किसी राजा के साथ धूमधाम से तेरा विवाह हो जायेगा। राजकुमारी ने कहा-फिर क्या होगा? धाय ने कहा-तू रानी बन कर उस घर में राज करेगी और शरीर के हर प्रकार के सुखभोग तुझे प्राप्त होंगे।राजकुमारी ने कहा-फिर क्या होगा?फिर तेरे बाल बच्चे होंगे। फिर क्या होगा? फिर तेरे बाल बच्चों को भी बाल बच्चे हो जायेंगे और तू दादी-नानी बन जायेगी। राजकुमारी ने कहा-फिर क्या होगा?
राजकुमारी के बार-बार फिर क्या होगा,फिर क्या होगा कहने से धाय चिढ़ गई। उसने झुंझलाते हुए कहा-फिर क्या होगा? फिर वही होगा कि तू वृद्धा हो जायेगी, तेरे अंग प्रत्यंग शिथिल हो जायेंगे,बाल पक जायेंगे तथा कमर झुक जायेगी और फिर एक दिन ऐसा भीआयेगा जब मृत्यु तुझे ग्रस लेगी और तेरा नामो-निशाान सदा के लिए इस संसार से मिट जायेगा। यही सबके साथ होता आया है और यही तेरे साथ भी होगा।
     कोई अन्य होता तो शायद धाय की बातों पर क्रोधित हो उठता, परन्तु राजकुमारी तो विचारवान थी,इसलिए क्रोध करने की बजाय वह हँस पड़ी।उसने हँसते हुए धाय से कहा,""बस इसी वास्ते तू मुझे दीर्घायु होने का आशीर्वाद दे रही है। यदि जीवन में मात्र यही कुछ करना है तो फिर पशु मेंऔर मुझमें अन्तर ही क्या रहा?पशु भी तो खाते पीते हैं,वे भी तो शरीर-इन्द्रियों के भोग भोगते हैं, उनके भी तो बाल-बच्चे होते हैं, वे भी वृद्ध होते हैं और फिर काल का ग्रास बन जाते हैं। मैने भी यदि यही कुछ किया तो फिर मनुष्य जन्म से, जिसे सब योनियों से श्रेष्ठ एवं उत्तम कहा गया है,मैने क्या लाभ उठाया? मनुष्य जन्म का ऐसा स्वर्णिम अवसर प्राप्त करके भी यदि नाम और भक्त की कमाई न की तो समझो अपनालोकऔर परलोक-दोनों ही बिगाड़ लिये।मनुष्य की ऐसी कार्यवाही पर तो सन्तों ने धिक्कार डाली है।इसलिये यदि तुमने मुझेआशीर्वाद देना ही है तो यह आशीर्वाद दे कि मैं चाहे दो दिन जीऊँ,दस दिन जीऊँ,दस वर्ष जीऊँ या सौ वर्ष जीऊं जितने दिन भी मैं जीऊँ,मेरा एक एक पल, एक एक स्वांस परमात्मा के नाम में,भजन ध्यान में व्यतीत हो ताकि मेरा संसार में जन्म लेना सफल एवं सकारथ हो।''
     किन्तु इस बात की समझ भी मनुष्य को तभी आती है जब सौभाग्य से उसे सत्पुरुषों की पावन संगति मिल जाती है। सत्पुरुषों की कृपा से मनुष्य को जीवन के वास्तविक उद्देश्य का पता चल जाता है और वह अपने वास्तविक काम में लगकर और अपनी आत्मा का क्ल्याण करके अपने जीवन को सफल एवं सकारथ कर लेता है।

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