Wednesday, January 27, 2016

फकीर की सब नमाज़ें कबूल हुर्इं


     इस्लाम धर्म के पैगम्बर हज़रत मुहम्मद साहिब एक दिन सार्इं साहिब नामक एक फकीर से मिलने गये। उस समय वे अपने डेरे पर उपस्थित नहीं थे।हज़रत मुहम्मद साहिब ने देखा कि जिस शिला पर सार्इं साहिब नमाज़ पढ़ा करते थे,उस पर उनके घुटनों,पैरऔर पंजों के निशान पड़ गये थे। अर्थात् सजदा करते रहने से पत्थर  घिस गया था। हज़रत साहिब ने उन निशानों को देखकर सोचा कि जब कि नमाज़ पढ़ते पढ़ते पत्थर पर इतने गहरे निशान पड़ गये हैं तो फकीर साहिब के ह्मदय में तो मालिक का प्रेम अत्यधिक घर कर चुका होगा और उनकी सब नमाज़ें मालिक की दरगाह में स्वीकृत हो चुकी होंगी।
     अभी वे मन में यह सोच ही रहे थे कि आकाशवाणी हुई कि सार्इं साहिब की एक भी नमाज़आज तक मालिक की दरगाह में स्वीकृत नहीं हुई।यह सुनकर हज़रत साहिब अत्यन्त विस्मित हुए। कुछ समय पश्चात् जब सार्इं साहिबअपने डेरे में वापसआये तो बातों-बातों में हज़रतमुहम्मद साहिब ने उनसे आकाशवाणी के विषय में बतला दिया।यह सुनकर सार्इं साहिब प्रसन्नता से नाच उठे। मुहम्मद साहिब ने जब उनसे इस प्रसन्नता का कारण पूछा तो सार्इं साहिब ने कहा कि नमाज़ के स्वीकृत अथवा अस्वीकृत होने से हमारा कोई प्रयोजन नहीं है।और स्वीकृत करना या न करना ये उसका काम है।हमें प्रसन्नता इस बात की है कि मालिक को इतना तो ध्यान है कि मेरा अमुक भक्त प्रतिदिन नमाज़ अदा करता है। मेरे लिये यही बहुत है।अभी ये बातें हो ही रही थीं कि हज़रत मुहम्मद साहिब पर फिर आकाशवाणी हुई कि सार्इं साहिब ने आज तक जितनी नमाज़ें पढ़ी हैं, वे सब की सब आज दरगाह में स्वीकृत हो गर्इं। यह सुनकर हज़रत साहिब भी अत्यन्त प्रसन्न हुये।
     इसमें भेद केवल यही था कि उन फकीरसाहिब ने नमाज़ पढ़ने का कोई प्रतिकार नहीं मांगा था।यह सुनकर कि मेरी एक भी नमाज़ स्वीकृत नहीं हुई,यदि वे खेद प्रकट करते और यह सोचते कि मैने ऐसा कौन सा पाप किया है जो मेरी एक भी नमाज़ स्वीकृत नहीं हुई और शिकायत करते,तो वे उस दात से जो उनपर उतरी,वंचित रह जाते। विचारवान और विवेकहीन में यही अन्तर होता है कि विचारवान जिस कार्य को निष्काम भाव से अपना कर्तव्य समझ कर करता है,अज्ञानी व्यक्ति उसी काम को स्वर्थपरता और किसी न किसी वांछा को दृष्टिगत रख कर करता है और अपने को दोषी बनाता है।
          मुरतकिब होता है जाहिल शखसीअत से जुर्म का।
          आरिफे-आज़ादा रु करता है दुनियाँ का भला।।(3/25)
अर्थः- जिन कर्मों को अज्ञानीजन आसक्ति रख कर करते हैं, ज्ञानी उन्हीं कर्मों को संसार की भलाई के लिये आसक्ति रहित हो करता है।
    जब लगु मनि बैकुण्ठ कीआस।। तब लगु होइ नहीं चरन निवास।।

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