Tuesday, January 12, 2016

प्रालब्ध-18.01.2016


सरल प्रकृति का एक लड़का एक दिन किसी मन्दिर में गया। वहाँ एक महात्मा का सतसंग हो रहा था। प्रसंग यह था कि परमात्मा का विधान प्रत्येक प्राणी को उसका प्रारब्ध भोग नियमित रूप से पुहँचा देता है।चाहे वह कहीं भी चला जाये, उसकी प्रारब्ध के भोग उसके पीछे अवश्य वहीं जा पहुंचेंगे। लड़के ने यह बात गाँठ बाँध ली। मन्दिर से बाहर आकर उस सरल बालक ने विचार किया कि इस तथ्य की परीक्षा करनी चाहिये कि प्रत्येक स्थान पर प्रत्येक प्राणी का भोजन नियति के विधान द्वारा कैसे पहुँचाया जाता है। वह जंगल की ओर निकल गया। वहाँ एक निर्जन स्थान देख कर वह बैठ रहा। उसने मन में कहा, देखें तो मेरे हाथ पाँव द्वारा चेष्टा किये बिना मेरी प्रारब्ध का भोग कौन यहाँ लेकर आता है। यह स्थान एक पर्वतीय गुफा थी, जो आबादी अथवा ग्राम से बहुत दूर थी।मनुष्य तो क्या,किसी पक्षी की छाया भी वहाँ कभी न पड़ी होगी।
     इस शून्य स्थान में लड़के ने आसन जमा लिया। सब ओर एकान्त था,मौन प्रकृति का साम्राज्य।ऐसा सुन्दर सुहावना वातावरण एकान्तप्रिय में परमात्मा का स्मरण होना स्वाभाविक है।इस लड़के को भी यहाँ कोई काम नहीं था। संसार की खटपट के वातावरण से वह बहुत दूर निकल आया था। यहाँ उसके मन में न कोई चिन्ता थी न कल्पना। एकान्तमय सुनसान वातावरण उसे अति सुखद एवं शान्तिप्रद प्रतीत हुआ। सहज ही उसका चित परमात्मा के सुमिरण मेंं रमने लगा। वह परमात्मा के ध्यान में एकाग्रचित होकरअपनी सुध बुध खो बैठा।उस क्षण उसके मुखमण्डल पर सुकुमार भोलापन बरस रहा था और इस एकान्त शान्त स्थान में वह एक बालयोगी सा प्रतीत होने लगा। मौन भाव से बैठा वह परमात्मा का स्मरण करता रहा। प्रातःकाल से बैठे बैठे मध्यान्ह काल हुआ और फिर दिन ढलने लगा।लड़के को भूख-प्यास ने बहुत सताया,किन्तु उसने स्वयं को नियन्त्रण में रखा।इधर उधर जंगल में खाने को फल-मेवे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे तथा पीने को सामने ही नदी का शुद्ध जल बह रहा था,जो कठिनाई से उसके आसन से डेढ़ दो फर्लांग दूर होगा। परन्तु उसने तो आज यह ठान ली थी कि बिना हाथ पाँव हिलाये कौर मुख में अपने आप पहुँचे,तो वह खायेगा,अन्यथा नहीं।इसी प्रकार संध्या होने कोआयी।
    संयोग की बात,ऊँटों की एक पंक्ति उधर से गुज़री।यह एक धनवान व्यापारी का काफिला था और ऊँटों पर उसका माल लदा था, जिसे वह बेचने के लिये कहीं ले जा रहा था। व्यापारी के साथ उसके सेवक तथा अन्य साथी भी थे।इस जंगल में पहुँच कर वे मार्ग से भटक गये थे। दूर दूर तक घनाऔर दुर्गम पर्वतीय बन था। दृष्टि सीमा तक घने वृक्षों तथा झाड़ियों केअतिरिक्त कुछ भी दिखाई न देता था। जनपद अथवा ग्राम का कोसों तक पता नहीं था।इधर रात्रि सिर पर आ रही थी। यह लोग बहुत परेशान थे। इन्हें यह चिन्ता थी कि इस दुर्गम बनखण्ड से वे कैसे पार हों। तथा किसी जनपद तक पहुँचें, जहाँ रात्री बिताने की सुविधा हो। घने जंगलों में बिना सोचे समझे आगे बढ़ने में यह आशंका भी तो रहती है कि आगे जाकर कहीं मार्ग स्र्वथा अवरुद्ध ही न मिले। अतः उन्हें किसी ऐसे व्यक्ति की खोज थी, जो उन्हें वन से बाहर कर दे। परन्तु इस भीहड़ वनखण्ड में तो एक भी प्राणधारी दिखायी न देता था। क्या करें और किधर जायें?इस असमंजस में यह काफिला उस नदी के तट पर पहुँचा, जिसे ठीक सामने वह पर्वत-गुहा थी,जिसमें वह परमात्मा से ध्यान लगाये आसीन था। नदी- तट पर आकर व्यापारी ने काफिले को रुक जाने का आदेश दिया।उसका विचार था कि नदी के आस पास कहीं कोई जनपद भी अवश्य होगा। जहाँ वे रुके थे,वहां नदी तट पर कुछ खुला स्थान भी था। काफिला थम गया और ऊँट सुस्ताने लगे। व्यापारी भी अपने घोड़े से उतर पड़ा और उनसे अपने साथियों में से दो चार को दौड़ा दिया कि जाकर इधर उधर देख-भाल करे। सम्भव है कोई प्राणी दिखायी दे जाये और वह हमारा मार्गदर्शन कर सके।सौदागर के आदमी चारों ओर घूमने लगे।उनमें से एक उस तरफ ही जा निकला,जहां वह लड़का ध्यानमग्न बैठा था। उसने अपने साथियों को आवाज़ दी उसके साथी भी वहाँ आ गये। उन्होने लड़के को आवाज़ें दी,किन्तु उत्तर न मिला। वह तो अपनी हठ पर अड़ा था, इसलिये कुछ न बोला। तब उन व्यक्तियों ने उसे बहुत हिलाया डुलाया,परन्तु वह पाषाण मूर्तिवत् स्थिर एवं शान्त रहा। व्यापारी ने अपने साथियों से कहा, यह कदाचित कोई तापस है तथा कई दिन का भूखा-प्यासा भी प्रतीत होता है।अतः सर्वप्रथम जाकर नदी से कुछ जल तथा अपने यहाँ से कुछ भोजन सामग्री ले आओ। इसे कुछ खिलाया पिलाया जाये,तो कदाचित यह बोलने योग्य हो सके। तब इसके द्वारा हमें मार्ग का अता पता भी मालूम हो सकेगा।
     भोजनसामग्री लायी गयी।काफिले वालों के पास और कुछ तो न था।थोड़ा सा ऊँटनियों का दूध और कुछ मात्रा शहद की मिल गयी, वही ले आये। किन्तु लड़का अब भी गुमसुम था। उन लोगों ने जब दो चार झटके दिये, तो दम साधे भूमि पर चित लेट गया। दाँत पर दाँत जमाकर उसने अपना मुख बन्द कर लिया था।उन लोगों ने उसका मुख खोलकर खिलाने पिलाने का बहुत प्रयत्न किया, किन्तु सफल न हो सके। लड़का भी अपने हठ का पक्का था।आज वह नियति की परीक्षा ले रहा था कि उसके मुख में ग्रास पहुँचाने का प्रबन्ध नियति किस प्रकार करती है। व्यापारी ने समझा,कदाचित किसी अज्ञात रोग के कारण लड़के का मुख नहीं खुलता, काफिले के साथ एक हकीम भी था।उसे बुलाया गया और उसने यह दशा देखकर सम्मति प्रकट की कि अधिक समय तक भूखा-प्यासा रहने के कारण लड़के की माँस पेशियाँ कठोर हो गयी हैं, इसी कारण मुख नहीं खुल रहा।किन्तु जब तक दूध के दो घूंट इसके गले से न उतरेंगे, इसकी चेतना लौट नहीं सकेगी। मुख न खुलने की दशा में हकीम के संकेत पर एक पत्थर लाया गया और हकीम ने पत्थर मारकर उसके सामने के दो दाँत तोड़ दिये।अब लड़के  के गले में दूध और शहद टपकाया गया। ज्यों ही दूध और शहद उसके गले में पहुँचा कि लड़का ठहाका मारकर हँसा और उठकर सीधा हो बैठा। व्यापारी तथा उसके साथियों द्वारा पूछे जाने पर जब लड़के ने अपना वृत्तान्त सुनाया, तो वह लोग भी खूब हँसे और उसकी अनोखी युक्ति की सराहना करते हुए बोले,""खूब!मनुष्य अपने कर्तव्य से गाफिल हो तो हो,किन्तु परमात्मा अपने कर्तव्य से गाफिल नहीं। वह प्रत्येक प्राणी कोप्रत्येक अवस्था में उसका प्रारब्ध-भोग पहुँचा देता है। यहाँ तक कि वह निर्जन एकान्त बन में भी भोजन का प्रबन्ध करता है तथा जब कोई न ग्रहण करना चाहे, तो उसे दाँत तोड़कर भी खिलाता है।'' तदोपरान्त लड़के को भरपेट भोजन कराया गया।उसने उन लोगों का मार्गनिर्देशन किया तथा उनके साथ साथ वह भी ग्राम को लौट आया।नियति की परीक्षा वह कर चुका था।उसके न चाहने पर भी नियति ने उसका भाग उसे जंगल में पहुँचा दिया था। इससे सिद्ध है कि प्रत्येक प्राणधारी को उसका प्रारब्ध प्रत्येक अवस्था में प्राप्त होकर ही रहता है। अतएव शारीरिक निर्वाह हेतु चिन्ता करना व्यर्थ है।

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