Friday, January 8, 2016

12.01.2016 सन्त तुकाराम जी


     सन्त तुकाराम जी के मुखमंडल पर हर समय शान्ति बरसती रहती थी। उनका चित्त हर समय प्रभु के ध्यान-सुमिरण में ही लगा रहता था। माता-पिता परलोक सिधार चुके थे और बड़े भ्राता घर-बार छोड़कर न जाने कहां चले गये थे, अतएव भाई-बहनों और पत्नी के अतिरिक्त बड़े भाई का परिवार के पालन पोषण का भार भी उनके ही कन्धों पर था। कमाई का साधन थोड़ी सी खेती बाड़ी थी, जिससे परिवार का निर्वाह बड़ी कठिनाता से होता था। सन्त तुकाराम जी प्रभु की मौज में प्रसन्न रहते हुये सन्तोषी जीवन व्यतीत करते और हर समय नाम की मस्ती में मस्त रहते। सन्तों के सभी लक्षण उनमें विद्यमान थे। किन्तु उनकी पत्नी अत्यन्त क्रोधी स्वभाव की थी। वह बात-बात पर तुकाराम जी से झगड़ा करती, परन्तु वे हँसकर बात टाल जाते।
     एक बार का वृतान्त है-सन्त तुकाराम जी ने अपने खेत से गन्ने काटे, उनका गट्ठर बाँधकर सिर पर लादा और बाज़ार की ओर चल दिये ताकि गन्ने बेचकर अनाज आदि खरीद करें। किन्तु मार्ग में गन्ने लेने के लिए बच्चे उनके पीछे पड़ गए। सन्त तुकाराम जी आम संसारी तो थे नहीं, वे तो थे सन्त। बच्चों के आग्रह को कैसे अस्वीकार करते। परिणाम यह हुआ कि गन्ने बच्चों में बँट गये। केवल एक गन्ना सन्त तुकाराम जी के पास शेष रह गया। वे उसे लेकर घर की ओर चल दिये। सन्त तुकाराम जी एक गन्ना लेकर घर पहुँचे, पत्नि को सम्पूर्ण वृतान्त पहले ही ज्ञात हो चुका था और वह क्रोध में भरी बैठी थी। तुकाराम जी ने जैसे ही गन्ना उसके हाथ में पकड़ाया, क्रोध में उसने वही गन्ना उनकी पीठ पर दे मारा गन्ना टूट गया, उसके दो टकड़े हो गये। सन्त तुकारम जी मुस्कराते हुये बोले-मैं सोच ही रहा था कि गन्ने के दो टुकड़े करके एक स्वयं लूँ और एक तुम्हें दूँ, परन्तु तुम तो समझदार हो जो बिना कहे ही तुमने इसके दो टुकड़े कर दिये। ये शब्द सुनते ही उनकी पत्नी का क्रोध पानी की तरह बह गया। सन्त तुकाराम जी के चरणों में गिरकर क्षमा तो उसने मांगी ही, उस दिन से उसके व्यवहार में आमूल परिवर्तन हो गया। वह भी विनम्र बन गई।           

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