Sunday, January 24, 2016

ज़िन्दगी की धारा भीतर से बाहर की तरफ बहती है


एक सेनापति एक छोटे से गांव से गुज़र रहा था। बड़ा कुशल निशानेबाज़ था। उस जमाने में उस जैसा निशाने बाज़ कोई भी न था। सौ में सौ निशाने उसके लगते थे। गांव से गुज़रते वक्त एक बगीचे की चार दीवारी पर, लकड़ी की चार दीवारी, फेंसिंग को उसने देखा कि उसमें कम से कम डेढ़ सौ गोलियों के निशान हैं, और हर निशान चाक के एक गोल घेरे के ठीक बीच केंद्र पर हैं। सेनापति चकित हो गया। इतना बड़ा निशानेबाज़ इस छोटे गांव में कहां छिपा है? और जो चाक का गोल घेरा है, ठीक उसके केंद्र पर गोली का निशान है। गोली लकड़ी को आर-पार करके निकल गई है। और एकाध मामला नहीं है; डेढ़ सौ निशान हैं। उसे लगा कि कोई मुझसे भी बड़ा निशानेबाज़ पैदा हो गया। पास से निकलते एक राहगीर से उसने पूछा कि,"भाई! यह कौन आदमी है? किसने ये निशान लगाए हैं? किसने ये गोलियां चलार्इं हैं? इसकी मुझे कुछ खबर दो।' मैं इसके दर्शन करना चाहूँगा।' उस ग्रामीण ने कहा कि "ज्यादा चिंता मत करो। गांव का जो चर्मकार है, उसका लड़का है। ज़रा दिमाग उसका खराब है। नट-बोल्ट थोड़े ढीले हैं।' उस सेनापति ने कहा, "मुझे उसके दिमाग की फिक्र नहीं है। जो आदमी डेढ़ सौ निशाने लगा सकता है इस अचूक ढंग से, वर्तुल के ठीक मध्य में, उसके दिमाग की मुझे चिंता नहीं, मेरे लिए वह महानतम निशानेबाज़ है, मैं उसके दर्शन करना चाहता हूँ।' उस ग्रामीण ने कहा कि "थोड़ा समझ लो पहले। वह गोली पहले मार देता है, चाक का निशान बाद में बनाता है।'
     करीब-करीब धर्म के इतिहास में ऐसा ही हुआ है। हम सब गोली पहले मार रहे हैं, चाक के निशान बाद में बना रहे हैं। लेकिन राहगीर को तो यही दिखाई पड़ेगा कि गज़ब हो गया। जिसे पता नहीं, उसे तो दिखाई पड़ेगा कि गज़ब हो गया। ज़िंदगी बाहर से भीतर की तरफ उलटी नहीं चलती है। ज़िन्दगी की धारा भीतर से बाहर की तरफ है; वही सम्यक धारा है, गंगोत्री भीतर है, गंगा बहती है सागर की तरफ। हम सागर से गंगोत्री की तरफ ज़िंदगी को बहाने की कोशिश में लगे रहते हैं।
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