Tuesday, January 26, 2016

जहाँ सुमति वहाँ सम्पत्ति नाना


एक सत्संगी परिवार था उस घर में सदा शान्ति रहती थी। वहां के सभी जनों का परस्पर प्रेम था। ""एक ने कही दूसरा ने मानी'' यह कहावत उन पर लागू होती थी। एक समय उस प्रान्त में दुर्भिक्ष पड़ गया। अनाज को आग लग गई। उन लोगों का निर्वाह भी बड़ी कठिनाई से होने लगा। उस समय घर के एक वृद्ध सज्जन ने कहा चलो, जंगल में जाकर कोई फल आदिक भी ढूँढ लेंगे और श्रमकार्य करके कुछ धन प्राप्ति भी हो जायेगी। सब के सब एक ही स्वर में मान गये और उठकर चल दिये। जंगल में पहुँचे। फलादिक खाये। जल पिया। उस समय उसी वृद्ध ने किसी को घास काटने, किसी को पानी लाने की आज्ञा दी। सब आज्ञा मान कर अपने अपने कार्यों में लग गये। घास और पानी के आ जाने पर वृद्ध बोले, घास को भिगो लो। उसे कूट काट कर एक रस्सी तैयार करो। सभी रस्सी बनाने में जुट गये। उस काल में अकस्मात लक्ष्मी जी का आगमन हुआ और उन लोगों से (जो रस्सी बना रहे थे) पूछा-यह क्या कर रहे हो? उन्होने उत्तर दिया कि हम रस्सी बना रहे हैं। लक्ष्मी देवी ने फिर पूछा कि, यह रस्सी किसलिये बना रहे हो? उत्तर मिला कि, तुझे बाँधने के लिये। सहज स्वभाव से उनके मुँह से ये शब्द सुनकर लक्ष्मी देवी जी डर गर्इं और बोलीं कि मुझे न बाँधो, मैं तुम्हें अनाज-कपड़ा और अनेक धनपदार्थ देकर मालामाल कर देती हूँ। उन्होने स्वीकार कर लिया और लक्ष्मी ने उन्हें एक पल के अन्दर ही निहाल कर दिया। अनेक पदार्थों से समृद्ध होकर जब वे सहर्ष अपने घर में लौटे तो एक पड़ौसी ने पूछा कि, आपको यह सब ऐश्वर्य-सामग्री कहाँ से मिली? उन्होने सारी गाथा कह सुनाई। यह सुनकर उसके मन में स्पर्धा जाग उठी।
           हंसां वेख तरन्दियां, बगां भी आया चाओ।
           डुब मोये बग बपड़े, सिर तल ऊपर पाओ। ।
ईष्र्या करने वाले पड़ोसी की दशा भी बगुले की तरह हुई। क्योंकि उसको भी ईष्र्या तो हुई कि मैं भी कुटुम्बियों के साथ जंगल में जाकर रस्सी बनाता हूँ और उस देवी जी को डरा कर माल-पदार्थ ले आऊंगा। इस घर के सब मनुष्य एक दूसरे के दोष देखने वाले थे। इस लिये उन के घर में सदा ही झगड़ा बना रहता था। जब घर के वृद्धो ने सबको कहा कि चलो-जंगल में तो हर किसी ने आनाकानी की। किसी का मुंह किसी तरफ। और किसी का मुँह किसी तरफ। किसी की एक राय किसी की दूसरी। बहुत प्रयत्न करने के बाद वह सबको समझा-बुझा कर बन में ले गया। जब वहाँ पहुँचे-तब उसने एक से कहा कि तुम जाकर घास काट लाओ और दूसरे को कहा कि तुम पानी भर लाओ। दोनों ने तुरन्त उत्तर दे दिया कि तुम आप जाकर यह काम करो, हम से तो नहीं होता। इस पर वह आप ही जाने को बाध्य हो गया। थोड़ा बहुत घास काट लाया और पानी भी ले आया। सबको फिर बुलाकर कहा कि आओ, रस्सी तैयार करें। यह सुनकर सब एक दूसरे का मुँह देखने लगे और कहने लगे कि तुम जाओ-वह कहे कि तुम जाओ-जाने को कोई भी उद्यत न हुआ। इस तरह बहुत देर तक वाद-विवाद होता रहा। बहुत प्रयत्न करने के उपरान्त टूटे मन से उन्होने काम शुरु कर दिया। उसमें कोई सम्मिलत हुआ कोई नहीं। उसी अवसर पर भाग्यवश लक्ष्मी देवी जी भी उधर आ निकलीं। उन्होने पूछा कि, यह क्या कर रहे हो? उन्होने उत्तर दिया कि, हम रस्सी बना रहे हैं। लक्ष्मी जी ने पुनः पूछा किसलिये? उन्होने झट से कहा, तुम्हें बाँधने के लिये। लक्ष्मी जी ने कहा कि तुम लोगों ने जबकि अपने आप को प्रेम के तार में नहीं बाँधा तो मुझे क्या बँधोगे? तुम लोग मुझे कदापि नहीं बाँध सकते। मुझे तो वे लोग बाँध सकते हैं जिनका आपस में संघटन होता है। संघटन उनका हो सकता है जो एक दूसरे के अवगुणों को नहीं देखा करते ऐसा कहकर लक्ष्मी देवी वहाँ से अदृश्य हो गई। वे सब लोग हताश होकर वहाँ से खाली हाथ ही लौट आये।
     इस उदाहरण से यह सिद्ध हुआ कि जिस घर के लोग आपस में सुमति से रहते हैं वहाँ सुख-सम्पत्ति का निवास होता है। यदि वे एक दूसरे के अवगुणों पर ही दृष्टि रखेंगे तो आपस में मेल-मिलाप न होने से दिन दिन वे हानि की तरफ जायेंगे। परमार्थ में भी देखा जाये तो उन्नति और सफलता वहीं दृष्टिगोचर होगी जहाँ इस अमर वचन पर अमल होगा।

No comments:

Post a Comment