Thursday, January 21, 2016

अनुचित व्यवहार पर भी प्रभु से क्षमा याचना


     अयोध्या निवासी एक सन्त परमवैष्णव थे। दया-क्षमा और करूणा उन के जीवन के आभूषण थे। एकबार वे नौका द्वारा सरयू नदी को पार करने की इच्छा से घाट पर आये। उस समय नदी बाढ़ पर थी। एक ही नौका थी इसलिये उसमें पहले से हीअनेक यात्री बैठे थे उन में आज के चंचलता और कुटिलता से भरे हुए युग के प्रतिनिधि पाँच-सात व्यक्ति भी विद्यमान थे। सन्त और सन्त के वेष में ऐसों को वैसे ही प्रायः घृणा होती है किसी की खिल्ली उड़ाना उन का सहज स्वभाव था। फिर कोई सन्त उनकी नाव में आ बैठे-यह उनको स्वीकार न था। उन्हीं कुटिल युवकों की ओर से आवाज़ आई""यहाँ स्थान नहीं है-दूसरी नौका से आ जाना'' अनेक प्रकार के कटु शब्द भी कह दिये। सन्त जी असमंजस में पड़ गये।नौका दूसरी कोई थी नहीं।उन्होने नाविक से प्रार्थना की। मल्लाह ने कहा-""एक ओर बैठ जाइये।''
     वे दुष्ट प्रकृति के लोग कुछ कह न सके,और अब लगे उन सन्त जी पर ही कीच उछालने। परन्तु साधू जी शान्त भाव से भगवन्नाम का स्मरण करते रहे। नाव जब जल के बीच पहुँची तो वह शठ मण्डली और भी चंचल हो गई। कोई उन पर पानी उलीचने लगा-किसी ने कंकड़ी दे मारी-एक ने पास में पड़ा नुकीला कील ही उन की खोपड़ी पर फैंक दिया-परिणाम यह हुआ कि सिर से रुधिर बहने लगा। परन्तु सन्त जी उसी शान्ति की मुद्रा मैं बैठे रहे। अत्याचार की मात्रा और बढ़ गई-दूसरे यात्रियों ने उन दुर्जनों को रोका-किन्तु वे कहां मानने वाले थे। भक्तों के अंग-संग श्री भगवान ही तो होते हैं। उनसे भक्त के दुःख को कहां देखा जा सकता है। तत्काल आकाशवाणी हुई-""महात्मन्!आप आज्ञा दें तो इन दुष्टों को क्षण भर में भस्मसात कर दिया जाय।''
     आकाशवाणी के सुनते ही सब के सब निस्तब्ध रह गये अब उन्हें काटो तो खून नहीं। अब तक जो सिंह बने हुए थे उन सबको काठ मार गया। उनकी बोलती बन्द हो गई। परन्तु प्रभु भक्त सन्त जी ने दोनों हाथ जोड़कर परमेश्वर से प्रार्थना की-""हे दयासिन्धो!आप ऐसा कुछ भी न कीजिये-ये अबोध बच्चे हैं।आप ही यदि इनकी अवज्ञाओं को न भुलाएंगे तोऔर कौन ऐसा दयावान है।आपका यदि मुझ पर स्नेह है तो इन्हें घनी घनी क्षमा दे दें। इनको सद्बुद्धि प्रदान करें। ये सुजन बन जायें। आपके श्री चरणारविन्दों में इनकी भी प्रीति हो जावे।'' यह है मानवता। इस जगतीतल पर मनुष्य के जीवन का आदर्श यही होना  चाहिये।

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